राजा विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट थे चक्रवर्ती सम्राट वह होते हैं जिनका एकछत्र राज्य होता है। जिसे कोई चुनौती देने वाला शेष ना रहता हो। विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन थी, वह ज्ञान, वीरता और उदार शीलता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी दया वीरता, दान वीरता का परिचय बेताल पच्चीसी नामक कहानी में देखने और पढ़ने को मिलती है।
इस लेख में आप विक्रमादित्य से संबंधित ढेर सारी कहानियों का संकलन प्राप्त करेंगे जो आपके ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ आपके पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी व्यक्त करने में सक्षम है। आपके पूर्वजों के अतीत की गौरव गाथा इस कहानी के माध्यम से यह प्रकट करने का प्रयास किया गया है।
1. राजा विक्रमादित्य को छूकर हासिल की संपत्ति
एक समय की बात है राजा विक्रमादित्य अपने प्रजा जनों के विवेक की परीक्षा लेने की सोच रहे थे। काफी विचार-विमर्श के बाद उन्होंने दरबार में घोषणा की कल राज महल का द्वार सभी प्रजा के लिए खोल दिया जाएगा। प्रजा जिस वस्तु को सर्वप्रथम हाथ लगाएगी, वह वस्तु उस व्यक्ति का हो जाएगा। तय समय के अनुसार ऐसा ही हुआ राज महल का द्वार खोल दिया गया। प्रजा दौड़ी-दौड़ी महल के भीतर प्रवेश कर गई और अपने मनपसंद की वस्तु को ढूंढ कर छूने लगी और वह सामान अपने नाम कर लिया। लोग ढूंढ रहे थे सबसे मूल्यवान वस्तु जो हो उसे प्राप्त किया जाए।
राजा विक्रमादित्य इन सभी प्रसंग को देख कर मुस्कुरा रहे थे। प्रजा जन बहुमूल्य वस्तु को प्राप्त करने की लालसा में व्यस्त थी, दरबारी जन इन कारनामों को देख रहे थे साथ ही विक्रमादित्य के मुख मंडल को भी ध्यानपूर्वक देख रहे थे।
अचानक उनमें से एक नौजवान राजा विक्रमादित्य की तरफ बढ़ा और राजा विक्रमादित्य को अपने हाथों से स्पर्श किया। तय शर्त के अनुसार राजा विक्रमादित्य अब उस नौजवान के हो गए थे। विक्रमादित्य उस नौजवान के विवेक पर मुस्कुराने लगे। जब विक्रमादित्य स्वयं उस नौजवान की हो गए तो उनकी सारी संपत्ति उस नौजवान की संभवत हो गई थी। जनता इस वाक्य को देखकर ठगा सा महसूस कर रही थी, क्योंकि नौजवान ने अपने विवेक से राजा विक्रमादित्य को प्राप्त कर लिया था। साथ ही उनकी सारी संपत्ति पर नौजवान का अधिकार हो गया था।
दरबार में कुलगुरू ने इस प्रसंग पर विस्तार से प्रकाश डाला और बताया जिस प्रकार नौजवान ने विक्रमादित्य को स्पर्श कर उनकी सारी संपत्ति को एक क्षण में अपने पक्ष में कर लिया। ठीक उसी प्रकार भगवान रोज अवसर देते हैं, किंतु हम बहुमूल्य वस्तुओं के पीछे दौड़ भाग करते हैं। जबकि ईश्वर की प्राप्ति करके हम उन सभी मूल्यवान वस्तुओं को प्राप्त कर सकते हैं। संतुष्टि, मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं इसलिए हमें बहुमूल्य वस्तुओं के पीछे भागने से बेहतर भगवान की प्राप्ति के लिए भागना चाहिए।
इस कहानी की नैतिक शिक्षा
मूल्यवान तथा भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति क्षण भर के लिए होती है। यह सांसारिक है जबकि ईश्वर की प्राप्ति पारलौकिक है। इस संसार में सुख तो मिलता ही है, साथ ही परलोक भी सुधरता है। यह मोक्ष प्राप्ति का एक मार्ग है, जो भौतिक तथा मूल्यवान वस्तुओं से भी मूल्यवान है।
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2. विक्रमादित्य ने महल दिया दान ( राजा विक्रमादित्य की कहानी )
विक्रमादित्य प्रजा पालक थे, दान पुण्य में विश्वास किया करते थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी और संपन्न थी। एक गरीब ब्राह्मण परिवार यह सोच कर कि राजा विक्रमादित्य के राज्य में उसका कुछ भला हो जाएगा पहुंच गया। कुछ समय भिक्षाटन कर अपना जीवन चलाने लगा। ब्राह्मण की पत्नी ने कहा राजा विक्रमादित्य दानी और महापुरुष है, तुम रोज रोज भीख मांग कर लाते हो क्यों ना उनके दरबार जाकर उनसे एक रहने के लिए घर और कुछ अनाज मांग लो। काफी बहस के बाद ब्राह्मण दरबार जाने को राजी हुआ। उसने मन बना लिया था कि राजा से एक छोटा सा घर और अनाज की मांग करेगा।
ब्राह्मण दरबार के लिए निकल पड़ा, रास्ते में वह सोचता जा रहा था इतने बड़े राजा से वह एक घर मांगने जा रहा है इस छोटी सी मांग से राजा कहीं लज्जित ना महसूस करें। जैसे-तैसे वह दरबार पहुंच गया। दरबान ने ब्राह्मण के आने का कारण पूछा तो उसने अपनी मांग को सादगी के साथ बता दिया। इस बात पर दरबान हंसने लगे कहा अरे ब्राह्मण तू एक छोटा सा घर मांगने आया है, वह तो दानी है उनका महल मांग ले।
दरबान के इस मजाक को ब्राह्मण समझ ना सका।
जब वह राजा विक्रमादित्य के सामने प्रस्तुत हुआ तो वह घबराहट में घर की जगह राजा का महल मांग बैठा।
राजा ने हंसते-हंसते अपना महल ब्राह्मण को दान कर दिया।
दरबारी आश्चर्यचकित रह गए अपना इतना बड़ा वैभवशाली महल राजा ने एक दरिद्र ब्राह्मण को बिना सोचे समझे दान कर दिया। ब्राह्मण अपने परिवार के साथ महल में रहने के लिए आ गया, धीरे-धीरे रात के अंधकार ने अपना पैर पसारना आरंभ किया। महल काफी विशाल था, दूर-दूर तक कोई खोज खबर नहीं, केवल सन्नाटा और तेज हवा का शोर। ब्राह्मण इतने बड़े घर में कभी रहा नहीं था, पूरा परिवार भय से कांप रहा था। सभी महल के एक कोने में इकट्ठे हो गए, ताकि किसी को भय ना सताय। रातभर जैसे-तैसे गुजारा हुआ, पत्नी रात भर ब्राह्मण को सुनाती रही इतना बड़ा महल मांगने की क्या जरूरत थी? एक छोटा सा घर ही मांग लेते। इसमें कैसे रहा जाएगा?
सभी डरे सहमे एक कोने में बैठे रहे और सवेरा होने का इंतजार करते रहे।
अगले दिन सवेरे ब्राह्मण दरबार में गया।
राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर माफी मांगी और महल वापस लेने का आग्रह किया। विक्रमादित्य धर्मात्मा थे उन्होंने धर्म का आचरण किया। वह ब्राह्मण को दिया हुआ दान वापस कैसे ले सकते थे? यह प्रश्न दरबार में विचारणीय हो गया। सभी बड़े गुरुजनों ने परामर्श दिया महल के बराबर कीमत ब्राह्मण को देकर अपना महल वापस ले सकते हो। राजा ने इस परामर्श को स्वीकार किया ब्राह्मण को महल के बराबर मूल्य देकर अपना महल वापस ले लिया।
कुछ दिनों बाद ब्राह्मण अपना धन लेकर अपने नगर वापस लौट गया।
नैतिक शिक्षा
धर्म का पालन करते समय लाभ हानि नहीं देखना चाहिए। दान में दिया गया सामान उसकी कीमत चुकाने पर ही वापस ली जा सकती है।
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निष्कर्ष
राजा विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट थे उनकी राजधानी उज्जैन थी। राजा विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करके विक्रम संवत नाम से पंचांग निकाला , संभवत या विक्रम युग की शुरुआत थी। यह पंचांग भारत और नेपाल में मान्य है। आज भी इस पंचांग का अनुसरण भारतीय लोग करते हैं।