भारतीय संविधान के जनक रूप में विख्यात बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी का संक्षिप्त जीवन परिचय इस लेख में प्राप्त करेंगे। इस लेख के माध्यम से आप उनके विचारों आदर्शों आदि से परिचित हो सकेंगे। उन्होंने भारत को किस दृष्टिकोण से देखा और किस लक्ष्य की ओर वह अपने देश को ले जाना चाहते थे, उसकी भी एक झलक हम इस लेख में देखेंगे।
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भीमराव अम्बेडकर जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि : परिवार में तीन सन्यासी
बाबा साहब का परिवार अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति का था। इसमें तीन सन्यासी हो गए दादाजी श्री मालोजी राव ने रामानंद संप्रदाय से दीक्षा ली थी पिता श्री रामजी ने कबीर पंथ की दीक्षा ली (कबीर के ही गुरु रामानंद थे ) राम जी के बड़े भाई (यानी बाबा साहब के ताऊजी) भी संयास लेकर घर छोड़कर गए थे। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी ने भी पत्नी रमाबाई के देहांत के बाद 1935 में कुछ दिन सन्यासियों वाली भगवा कफनी पहन ली थी। बचपन में पिताजी के आग्रह के कारण भीमराव व भाई-बहन को भोजन से पहले हिंदू संतों की रचनाएं दोहे कविता अभंग आदि कोई न कोई याद कर सुनानी पड़ती थी।
बाबासाहब कहते हैं इसी कारण संत तुकाराम, मुक्तेश्वर, एकनाथ, कबीर आदि की रचनाएं मुझे कंठस्थ हुई।
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा प्रकाशित पत्र ‘मुकनायक’ में सबसे ऊपर तुकाराम महाराज के अभंग छपता था। उनकी अन्य पत्रिका बहिष्कृत भारत मासिक में संत ज्ञानेश्वर व समर्थ रामदास आदि के उदाहरण रहते थे। बाबा साहेब मानते थे कि मनुष्य के गठन में धर्म का बड़ा स्थान है उनका विश्वास था कि अपने पास जो भी अच्छी बातें हैं वह सारे धर्म के फल हैं।
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अंबेडकर जी का गौ मांस के प्रति विद्रोह
भारतीय संस्कृति में गौ मांस खाना वर्जित है। गाय प्रकृति के उत्सर्जन और वर्धन के लिए एक घटक है। इसकी उपलब्धता पृथ्वी को उर्वरा बनाती है। माना जाता है गाय के भीतर 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास है। गौधन अमूल्य होता है इसके दूध में जो शक्ति होती है वह संसार के किसी अन्य द्रव्य में नहीं मिल सकती। विभिन्न कारणों तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद भी यह सिद्ध होता है कि गौ मांस व्यक्ति के शरीर पर दुष्प्रभाव डालता है।
हिंदू मान्यता में गाय को माता समान माना गया है जिसकी इस संस्कृति को मानने वाले लोग पूजा किया करते हैं। 1913 में बड़ौदा महाराज सयाजीराव गायकवाड से प्राप्त छात्रवृत्ति के साथ भीमराव कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ने गए। न्यूयॉर्क स्थित इस विश्वविद्यालय के छात्रावास को उन्होंने इसलिए छोड़ा कि वहां के भोजन में गौ मांस रहता था। बाबासाहेब के नाम पर संस्था बनाकर बीफ फेस्टिवल करने वाले लोग उनके प्रति निकृष्ट द्रोह करते हैं ।
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भीमराव अम्बेडकर साम्यवाद के विरोधी
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का खुद को अनुयाई बताकर कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन तालमेल की कोशिश भी उनके विचार के विरुद्ध है। बाबा साहब ने साम्यवाद को ढकोसला बताया था। उन्होंने कहा था कि ‘सवर्ण हिंदुओं और कम्युनिस्ट के बीच गोलवलकर (राष्ट्रीय स्वयंसेवक के तत्कालीन प्रमुख) एक अवरोध है। उसी प्रकार परिगणित जातियों और कम्युनिस्ट के बीच अंबेडकर अवरोध है। उनका मानना था कि दुनिया को गौतम बुद्ध एवं कार्ल मार्क्स के बीच एक को चुनना होगा।’
अंबेडकर जी की हृदय विदारक गरीबी
1970 में प्रथम विदेश प्रवास से लौटने के बाद ट्यूशन आदि द्वारा बाबासाहेब ने परिवार चलाने की कोशिश की उनका काफी समय समाजिक कार्यों में बिकता था। घर में गरीबी थी पत्नी रमाबाई पेड़ों की लकड़ियों का गोबर आदि इकठ्ठा कर चलाती थी। बाबा साहेब की 5 में से चार संताने इस दारिद्र्य की भेंट चढ़ गई।
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मंदिर में प्रवेश हेतु सत्याग्रह
बाबासाहेब ने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के लिए कई सत्याग्रह चलाएं। इनमें अमरावती के अंबादेवी मंदिर सत्याग्रह , पूना का पार्वती मंदिर सत्याग्रह , तथा नासिक का कालाराम मंदिर सत्याग्रह प्रमुख है। उस समय का उनका सोच यह था जो अंबा देवी मंदिर सत्याग्रह के समय व्यक्त हुआ अगस्त 1927 –
” हिंदुत्व पर जितना स्पृश्यों का अधिकार है उतना ही अस्पृश्यों का भी है। हिंदुत्व की प्रतिष्ठा जितनी विशिष्ट जैसे ब्राह्मणों , कृष्ण जैसे छत्रिय , हर्ष जैसे वैश्य , तुकाराम जैसे शूद्र ने की , उतनी ही बाल्मीकि , चोखामेला व रविदास जैसे और अश्पृश्यों ने भी की है। हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया है। व्याध – गीता के अस्पृश्य दृष्टा से लेकर खर्डा की लड़ाई (इस युद्ध में राजाराम की सेनापति परशुराम भाऊ को मुगलों की गिरफ्त से छुड़ाया गया था ) के सिद्धनाथ जैसे अस्पृश्यों ने हिंदुत्व के संरक्षण के लिए अपना सिर हथेली पर रखा। उनकी संख्या कम नहीं थी जिस हिंदुत्व को स्पृश्य और अस्पृश्य ने मिलकर बनाया और उस पर संकट आने पर अपने जीवन की परवाह न करते हुए उनकी रक्षा की हिंदुत्व के नाम पर खड़े किए गए मंदिर जितने स्पृश्यों के हैं उतने ही अस्पृश्यों के भी हैं। उन पर दोनों का समान अधिकार है। ”
मंदिर प्रवेश सत्याग्रह असफल रहे मुंबई काउंसलिंग में कानून पास हो जाने के बाद भी अछूतों को प्रवेश नहीं मिला। 1935 में पत्नी रमाबाई जो विट्ठल (कृष्ण )की भक्त थी, रूग्णावस्था में विठल विठल पुकारते चल बसी पर पंढरपुर विट्ठल मंदिर में बाबा साहेब उन्हें न ले जा सके। इस सब के बाद उन्होंने अक्टूबर 1935 में अपनी प्रसिद्ध घोषणा कि- मैं हिंदू के रूप में जन्मा अवश्य हूं हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।
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भीमराव अंबेडकर जी का विशेष उल्लेख
2006 में श्री गुरुजी जन्म शताब्दी के दौरान संघ कार्यकर्ताओं के प्रयास से काला राम मंदिर के महंत सुधीर महाराज जो 1935 के समय महंत के पोते हैं ने बाबा साहब के पौते प्रकाश आंबेडकर को उनके साथियों सहित मंदिर में ससम्मान बुलाकर पूजा कराई तथा सर्वजाति सहभोज का आयोजन किया। सुधीर जी ने कहा कि वह अपने दादा के पाप का प्रक्षालन कर रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर –
बाबा साहब को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में पूरी जानकारी थी। हिंदू धर्म छोड़ने की उनकी घोषणा के बाद 1936 में मकर संक्रांति उत्सव (पुणे 13 जनवरी 1936) में संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के अनुरोध पर वे कार्यक्रम अध्यक्षता हेतु आय। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उपस्थित स्वयं सेवकों के बीच घूम – घूम कर उन्होंने प्रत्यक्ष जानकारी की , कि संघ में लगभग 15% कथित अछूत समुदायों से हैं। वे अपने व्यवसाय के निमित्त दापोली गए और वहां शाखा पर जाकर स्वयंसेवकों से खुले मन से बातचीत की (1936)| दशहरा 1937 के संघ के उत्सव में वह करहाङ के संघ शाखा पर भी हो कर आए।
सन 1939 में पुणे में लगे संघ शिक्षा वर्ग में भी योजना अनुसार बाबा साहब आए डॉक्टर हेडगेवार भी वहां से लगभग 525 पूर्ण गणवेशधारी स्वयंसेवक संस्थान पर थे। बाबा साहब ने डॉक्टर हेडगेवार से पूछा इनमें और अस्पर्श कितने हैं ? डॉक्टर साहब ने कहा “आप स्वयं पूछ लें “| बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने माइक से पूछा आप में से जो अश्पृश्य हो वह एक कदम आगे आएं।इसपर कोई भी स्वयंसेवक आगे नहीं आया। बाबा साहब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से डॉक्टर साहब की और देखा हेडगेवार बोले आपका प्रश्न गलत है हमारे यहां कोई और अस्पर्श है ही नहीं।
आप अपनी अभिप्रेत जाति का नाम लेकर पूछे। तब बाबा साहब ने स्वयंसेवकों से प्रश्न किया इस वर्ग में कोई हरिजन, मांग, महार, चमार हो तो एक कदम आगे आए एसा कहने पर 100 से अधिक स्वयं सेवक आगे आए। यानी लगभग 20% स्वयंसेवक अछूत वर्ग के थे। संग के जातिविहीन समरस समाज बनाने के प्रयत्न डॉक्टर साहब को प्रभावित करते थे। इतना ही ताकि उन प्रयासों की गति तीव्र महसूस नहीं होती थी। पर बाबा साहब ने अस्पृश्यता रहित जातिवाद विहीन हिंदू संगठन का कार्य आवश्यक बताया था।
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संघ के परम हितेषी
जब नेहरू ने महात्मा गांधी के हत्याकांड में वीर सावरकर और गोलवलकर (श्री गुरु जी) को गिरफ्तार किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया तो बाबा साहब जो तत्कालीन कानून मंत्री थे, ने विरोध जताया था। संघ पर प्रतिबंध हटवाने की उन्होंने कोशिश की जिसके लिए संग प्रमुख श्री गोलवलकर (श्री गुरूजी) ने सितंबर 1949 में उनसे मिलकर धंयवाद दिया था।
यह भी स्मरणीय है कि 1952 में मुंबई के लोकसभा चुनाव तथा 1954 में भंडारा से लोकसभा के उपचुनाव में बाबा साहब शेडूल उनके प्रत्याशी थे , तब संघ के कार्यकर्ताओं व अन्य हिंदुत्ववादी दलों ने बाबा साहब का समर्थन किया था।
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हिंदू संगठन के पक्षधर
भीमराव अम्बेडकर छुआछूत और जातिवाद से रहित समाज चाहते थे सन 1936 में “जातियों के उन्मूलन” शिर्षक लेख में उन्होंने लिखा था , कि इन बुराइयों के चलते हिंदू संगठित नहीं हो सकते , जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है।
उनकी नजर में हिंदू संगठन देश की आवश्यकता तथा उनके लेख का अंतिम अंश इस प्रकार है ”
हिंदू संगठन राष्ट्रीय कार्य है वह स्वराज से भी अधिक महत्व का है। स्वराज्य का संरक्षण भी आवश्यक है परंतु स्वराज्य से रक्षण से भी अधिक स्वराज्य के हिंदुओं का संरक्षण करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। हिंदू समाज सामर्थ्यशाली नहीं होगा तो स्वराज्य पुनः दासता का पूर्ण रूप धारण कर लेगा।
” याद रखना चाहिए कि हिंदू संगठन का आह्वान करने वाले बाबा साहब के यह शब्द उनकी धर्मांतरण की घोषणा के बाद के हैं।
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भगवा ध्वज तथा संस्कृत भाषा प्रेमी
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने जुलाई 1947 में संविधान सभा की झंडा समिति की बैठक में भगवा ध्वज को राष्ट्रध्वज घोषित करने की चर्चा की थी। इसके अलावा उन्होंने संस्कृत भाषा को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव 11 सितंबर 1949 को 13 अन्य सदस्यों को साथ लेकर प्रस्तुत किया और इस मामले पर पंडित बंगाल से चुने गए एक सदस्य लक्ष्मीकांत मैत्रर के साथ संस्कृत में वार्तालाप कर संविधान सभा के सदस्यों को चकित कर दिया था। यद्यपि दोनों ही मामलों में बाबा साहब अपनी बात मनवा नहीं सके पर उनकी सोच जगजाहिर हुई।
भीमराव अम्बेडकर जी का हिंदू समाज पर उपकार –
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की धर्मांतरण की घोषणा के बाद हैदराबाद के निजाम ने उन्हें इस्लाम में लाने का प्रयास किया था और इसके लिए भारी धन देने की भी पेशकश की थी। इस प्रकार वह और एंग्लिकन चर्च के प्रधान (कैडबरी के आर्चबिशप) की ओर से उन्हें ईसाइयत में सम्मिलित करने के प्रयास हुए पर बाबा साहब मानते थे कि अस्पृश्य समाज को मुस्लिम या इसाई समाज में समता का व्यवहार व सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा।
साथ ही इस्लाम और ईसाइयत में जाने के साथ ही दलित वर्ग पूर्ण रूप से अराष्ट्रीय हो जाएगा। डॉक्टर आंबेडकर लाइफ एंड मिशन लेखक धनंजय वीर पृष्ठ 230 तथा द टाइम्स ऑफ इंडिया 24 जुलाई 1936 अतः उन्होंने बहुत मत अपनाकर भारत और हिंदू समाज दोनों पर उपकार किया है।
मुसलमान न बने भले ही मर जाएं –
पाकिस्तान तथा भारत में विलय से पहले की हैदराबाद रियासत में फंसे अनुसूचित बंधुओं से उन्होंने अपील की थी कि वह किसी भी दबाव में मुसलमान ना बने भले ही मर जाएं। (धनंजय कीर की पुस्तक पृष्ठ 399)
भीमराव अम्बेडकर जी का महान दूरदृष्टि –
बौद्ध मत में दीक्षा लेने के पूर्व उन्होंने कहा था – ” देश का यह सबसे बड़ा हित है जो मैं बौद्धमत अपना रहा हूं क्योंकि बौद्ध मत भारतीय संस्कृत काही अभिन्न अंग है। मैंने इस बात का ध्यान रखा है कि मेरा मत परिवर्तन इस भूमि के इतिहास और संस्कृति की परंपरा को कोई हानि न पहुंचाएं ” अपने हिंदू कोड बिल के लिए बाबा साहब ने “हिंदू” शब्द की बहुत व्यापक व्याख्या की थी। इसके अनुसार ईसाई, मुसलमान, पारसी और यहूदियों को छोड़कर देश की सब वैदिक, शैव, जैन, बौद्ध, सिख और बनवासी क्षेत्र की तमाम जातियों को उन्होंने ‘हिंदू’ शब्द में शामिल किया था।
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समापन
बाबा साहब अंबेडकर दूरदृष्टि रखते थे उन्होंने भारतीय संविधान निर्माण में अपनी अहम योगदान को सुनिश्चित किया था। आजीवन संघर्ष करते हुए उन्होंने वह मुकाम हासिल किया जो प्रत्येक भारतीय के लिए गौरवान्वित होने का विषय है। वर्ग भिन्नता को समाप्त करने का प्रयत्न किया। वंचितों को शिक्षा सरल और सुगम हो सके इस का प्रयत्न किया। उन्होंने समाज के उस वर्ग को जागृत करने का प्रयास किया जो सदैव वंचित रहा है, शोषण का शिकार होता रहा है। उपरोक्त लेख आपको कैसा लगा अपने सुझाव तथा विचार कमेंट बॉक्स में लिखें।