महारथी दानवीर कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में से एक था। स्वयं सूर्यपुत्र और क्षत्रिय कुल का होते हुए भी आजीवन सूतपुत्र कहलाते रहे । कर्ण ने महाभारत में अपनी अद्युतिय प्रतिभा का प्रदर्शन किया।
कर्ण के तुरिन में वाणों के ऐसे भंडार थे जो संसार में दुर्लभ माने जाते है।
प्रस्तुत लेख के माध्यम से आप महारथी कर्ण के विषय में संपूर्ण जानकारी हासिल कर सकेंगे। उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक की समस्त जानकारी इस लेख में दी गई है। किन परिस्थितियों में उनका जन्म होता है , और किस अपमान में वह जीवन भर जीता है , यह सभी विषय इस लेख में समाहित है। कर्ण द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की कथा भी इस लेख में लिखा गया है। गुरु के द्वारा दिया गया श्राप , आखिरकार उसे वीरगति देने में किस प्रकार सफल हुआ। इन सभी घटनाओं का सविस्तार वर्णन इस लेख में उपलब्ध है –
दानवीरता की बात जहां आती है वहां कर्ण का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है।
कर्ण ऐसा दानवीर था अपने द्वार पर आए हुए को कभी वापस निराश नहीं लौटने देता था। उसकी दान वीरता का अंदाजा इससे लगा सकते हैं। उसके शरीर में कवच – कुंडल उसके प्राण के रूप में थे। देवराज इंद्र ने छल से जब कवच को मांगा , तो इस छल को जानते हुए भी कर्ण ने अपने पैर पीछे नहीं किए –
महाभारत के महान योद्धा कर्ण की संपूर्ण जीवनी
नाम – कर्ण
पिता – सूर्य देव
माता – कुंती
पालनहार पिता – अधिरथ ( धृतराष्ट्र का संजय से पूर्व सारथि )
पालनहार माता – राधा ( अधिरथ की पत्नी )
प्रमुख उपनाम – राधेय , कौन्तेय , दानवीर , अंगराज आदि
पत्नी – वृषाली
कर्ण के पुत्र – सुदामा , वृषसेन , चित्रसेन ,सत्यसेन , सुषेण , शत्रुंजय ,वृषकेतु , बाणसेन ,द्विपाता , प्रसेन।
आराध्य देव – सूर्य
गुरु – परशुराम
दानवीर कर्ण
कर्ण महाभारत का एकमात्र ऐसा पात्र था जो अपनी पहचान के लिए जीवन भर संघर्ष करता रहा। कर्ण जीवन भर सूत पुत्र ( सारथी पुत्र ) कहलाता रहा , यह अपमान का विष वह जीवन पर्यंत पीने पर विवश था। जीवन भर जिसका वध कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी सिद्ध करने की प्रतिज्ञा वह लेता रहा। अंत समय उसके जीवन की पहचान से तथा वास्तविक ज्ञान से कर्ण जैसा योद्धा भी विचलित हो गया।
कृष्ण द्वारा युद्ध आरंभ से पूर्व कर्ण को उसके वास्तविक स्वरूप से परिचय कराना। कर्ण के जीवन में तूफान से कम नहीं था। कर्ण को अपने वास्तविक माता – पिता का परिचय होता है। वह जिस व्यक्ति का वध करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ रहता है , वह और कोई नहीं उसका छोटा भाई अर्जुन होता है।
कर्ण के जीवन में ऋण का मूल्य चुकाना और सत्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाना , इन दोनों के बीच पूरे जीवन गहरा द्वंद छिड़ जाता है। कर्ण वास्तविक में महान योद्धा था और क्षत्रिय रक्त उसके शरीर में प्रवाह हो रहा था। वह कभी भी अपने कर्तव्य और ऋण का मूल्य चुकाने से पीछे हटने वाला नहीं था।
सत्य को जानते हुए भी कर्ण ने असत्य के मूर्ति दुर्योधन का साथ दिया , क्योंकि कर्ण दुर्योधन के ऋण से दबा हुआ था। कर्ण की दान वीरता उसके युद्ध वीरता से कहीं अधिक श्रेष्ठ थी। कर्ण का नाम दानवीरों में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। दानवीरता की पराकाष्ठा देखिए कर्ण ने यह जानते हुए भी कि ब्राह्मण के वेश में इंद्र उसके प्राण मांगने आया है। तनिक भी विलंब ना करते हुए , अपने प्राण स्वरूप कवच – कुंडल देवेंद्र को दान में दे दिया। ऐसा दानवीर युगों – युगों में कोई एक होता है।
कुंती कौन थी
कुंती के बाल्यकाल का नाम प्रभा था। यह राजा शूरसेन की कन्या थी। शूरसेन का फुफेरा भाई कुंतीभोज था , जिसने प्रभा को गोद में उठाकर उसका नाम कुंती रख दिया था। तब से वह कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई।
शूरसेन यदुवंशी थे वह श्री कृष्ण के पितामह भी थे , जिसके कारण कुंती श्री कृष्ण की बुआ कहलाई। कुंती ने बाल्यकाल में अति क्रोधी महर्षि दुर्वासा की निरंतर एक वर्ष तक सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने कुंती को एक दिव्य मंत्र प्रदान किया। इस मंत्र के प्रभाव से देवताओं से उनके पुत्र प्राप्त किए जा सकते थे।
महर्षि दुर्वासा त्रिकालदर्शी थे , वह कुंती के भविष्य को पहले से जानते थे। उन्हें यह पता था कि कुंती का विवाह जिस व्यक्ति से होगा , वह श्राप वश संतान उत्पत्ति नहीं कर पाएगा। इसलिए यह मंत्र कुंती के जीवन में अहम योगदान निभाएगा।
एक समय की बात है
कुंती ने इस मंत्र के प्रभाव को जांचने के लिए कौतूहल वश , मंत्रों का आह्वान किया। मंत्र के प्रभाव से सूर्य देव को आना पड़ा। सूर्य देव ने जब कहा – ‘ मैं तुम्हारे मंत्रों के प्रभाव से तुम्हें पुत्र देने के लिए उपस्थित हुआ हूं। ‘
कुंती घबरा गई……
उसने अपने कुमारी होने की बात सूर्य देव को कहा। किंतु मंत्रों का प्रभाव व्यर्थ ना जाए , इसलिए सूर्य देव को अपना पुत्र कुंती को प्रदान करना ही था। सूर्य देव ने अपना पुत्र कुंती को प्रदान किया। यह पुत्र जन्म से ही कवच – कुंडल धारी था। जो भविष्य में महारथी कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कुंती ने लोक – लाज और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस पुत्र को अपने पास , लोक निंदा के डर से नहीं रख सकी । कुंती ने तत्काल एक संदूक (बक्सा) तैयार किया और उसमें इस नवजात बालक को सुरक्षित रखकर गंगा में प्रवाह कर दिया। ताकि कोई व्यक्ति इस बालक का पालन – पोषण कर सके।
कुछ समय के उपरांत कुंती का विवाह हस्तिनापुर के राजा पांडू से हुआ। मंत्रों के प्रभाव से कुंती ने अपने तीन पुत्रों को जन्म दिया जिसमें – धर्मराज युधिष्ठिर , पवन पुत्र भीम तथा देवराज इंद्र का पुत्र अर्जुन पैदा हुआ।
नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे। माद्री पांडू की दूसरी पत्नी थी , जो पांडु के मृत्यु के पश्चात सती हुई थी।
कुंती को दिव्य मंत्र की प्राप्ति कैसे हुई थी
जैसा कि उपरोक्त बताया गया है , कुंती ने बाल्यकाल में अति क्रोधी महर्षि दुर्वासा का एक वर्ष सेवा किया था। सेवा से महर्षि दुर्वासा अति प्रसन्न हुए थे। वह कुंती के भविष्य को जानते थे। वह यह भी जानते थे कुंती का जिस व्यक्ति से विवाह होगा , वह ऋषि के श्राप के कारण संतान की उत्पत्ति नहीं कर पाएगा। अपने वंश को चलाने के लिए कुंती को इन मंत्रों की आवश्यकता पड़ेगी।
यही कारण था कुंती की सेवा से प्रभावित दुर्वासा ऋषि ने दिव्य मंत्र प्रदान किया।
इस मंत्र का प्रभाव के माध्यम से किसी भी देवता को बुलाकर , उनसे पुत्र प्राप्त किया जा सकता था।
कर्ण का जन्म कैसे हुआ
महर्षि दुर्वासा के द्वारा कुंती को संतान उत्पत्ति का दिव्य मंत्र प्राप्त हुआ था। कुंती ने इन मंत्रों के प्रभाव को जानने की उत्सुकता वश मंत्रों का आह्वान किया। इस मंत्र के प्रभाव से वशीभूत होकर सूर्य देव को कुंती के समक्ष प्रस्तुत होना पड़ा।
सूर्य देव ने जब कुंती को कहा –
” है सुंदरी तुमने मेरा आह्वान किया है ! मैं तुम्हें पुत्र प्रदान करने आया हूं।”
कुंती भय से थरथर कांपने लगी , उसने सूर्यदेव को कहा –
‘ मैं अभी अविवाहित हूं , मैं यह पुत्र कैसे स्वीकार कर सकती हूं ? इस मन्त्र का प्रयोग कौतुहल वश किया है आप मुझे क्षमा करें।’
किंतु मंत्र के आह्वान के उपरांत सूर्य देव को वह पुत्र प्रदान करना ही था। उन्होंने कुंती को आश्वासन देते हुए अपना पुत्र प्रदान किया। यह पुत्र जन्म से ही कवच – कुंडल धारी था , मुख पर सूर्य का तेज था।
कुंती उच्च कुल और सभ्य समाज की पुत्री थी।
लोक – लाज तथा निंदा के भय से एक सुरक्षित संदूक में रखकर बालक को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया।
यह दिव्य बालक कोई और नहीं – सूतपुत्र कर्ण , महारथी कर्ण , दानवीर कर्ण के नाम से विख्यात हुआ।
कर्ण का पालन पोषण किसने किया
- कुंती ने लोक निंदा के कारण अपने जिस बालक को गंगा में प्रवाहित कर दिया था।
- उसको एक निः संतान दंपति अधिरथ – राधा ने गंगा की लहरों से प्राप्त किया।
- इस बालक का पालन – पोषण किया , बालक का नाम राधेय रखा।
- अधिरथ हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र का सारथी था।
- पुत्र के पालन – पोषण के लिए अपने स्थान पर संजय को नियुक्त कर , राज्यसेवा से सेवानिवृत्ती प्राप्त की।
- अधिरथ गंगा के किनारे अपनी कुटिया में रहा करता था।
- साथ में उसकी पत्नी राधा रहती थी , यह निः संतान दंपति थे।
- अधिरथ एक दिन गंगा के किनारे बहती धारा में बच्चे की रोने की आवाज सुनी।
- उस आवाज का पीछा करते हुए , अधिरथ आवाज के स्रोत तक पहुंचा।
- यहां एक संदूक में दिव्य कवच – कुंडल धारी बच्चा बह रहा था।
- उस बच्चे को अधिरथ ने निकाला और अपने घर लाकर पत्नी को सौंप दिया।
- पत्नी बच्चे को पाकर बेहद खुश थी।
- भगवान का आशीर्वाद समझ इस बच्चे को अपना नाम राधेय दिया।
- माता की पूरी निष्ठा के साथ बालक का पालन – पोषण किया।
यह बालक सूत पुत्र और राधेय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कर्ण की शिक्षा – दीक्षा
राधेय (कर्ण) जन्म से ही दिव्य गुणों के साथ जन्मा था। राधेय सामान्य बालकों से बिल्कुल अलग था , इसमें वह प्रतिभा थी जो अन्य बालकों में नहीं होती है। इस बालक का खिलौना भी धनुष – बाण था। भविष्य में सबसे बड़ा धनुर्धारी बनने की इच्छा इस बालक के मन में थी। माता-पिता की विवषता थी , वह इस बालक के लिए वह सभी सुविधाएं नहीं दे सकते थे , जो राजपूतरों को मिला करती थी।
राधेय अपने माता-पिता के लिए किसी राजकुमार से कम नहीं था।
यही कारण था कि अधिरथ ने राधेय की देखभाल करने के लिए राज्य सेवा से संन्यास ले लिया था। अधिरथ अपने पुत्र के पालन-पोषण में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं रहने देना चाहता था। वह राधेय के लिए उत्तम शिक्षा की व्यवस्था करना चाहता था। इसी उद्देश्य से वह गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में राधेय को लेकर गए थे।
द्रोणाचार्य अधिरथ को जानते थे उन्होंने बालक का नाम पूछा।
अधिरथ में बालक का नाम राधा का पुत्र राधेय बताया। बालक के मुख पर दिव्य प्रकाश था , द्रोणाचार्य ने बालक का नाम कर्ण रखा। यही बालक भविष्य में दानवीर कर्ण , महारथी कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
गुरु द्रोणाचार्य ने बालक को शिक्षा देने से इंकार कर दिया।
उन्होंने बताया यह गुरुकुल केवल राजकुल के बालकों के लिए है। यहां केवल क्षत्रिय तथा राज परिवार के बालकों की शिक्षा – दीक्षा होती है।
अतः में आपके बालक को शिक्षा नहीं दे सकता यह कहकर मना कर दिया ।
आप कर्ण के लिए किसी और गुरु का चयन करें।
कर्ण ने द्रोणाचार्य से कई प्रश्न किए –
क्या शिक्षा धर्म जाति देख कर दी जाती है ? क्या सरस्वती देवी किसी बालक का जाति धर्म देखती है ?
किंतु द्रोणाचार्य ने एक नहीं सुनी , अपनी विवषता राज परिवार तथा क्षत्रिय कुल के प्रति जाहिर करते हुए शिक्षा देने से इनकार कर दिया। कर्ण ने तत्काल गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र को कुटिया में बैठे देखा। यह बालक चक्रव्यूह की रचना का अध्ययन कर रहा था।
कर्ण ने तत्काल उस बालक की ओर इशारा करते हुए पूछा –
यह बालक कौन है ?
द्रोणाचार्य ने उत्तर दिया –
यह मेरा पुत्र अश्वस्थामा है ।
कर्ण का सीधा सा जवाब था , ना तो यह राजकुल का बालक है और ना ही क्षत्रिय फिर भी इसे शिक्षा दी जा रही है , मेरे साथ ऐसा भेदभाव क्यों ?
यह कहते हुए कर्ण , द्रोणाचार्य के आश्रम से सर्वश्रेष्ठ गुरु की तलाश में निकल गया।
परशुराम – कर्ण प्रसंग
कर्ण , द्रोणाचार्य के आश्रम से अपमानित होकर अपने लिए सर्वश्रेष्ठ गुरु की तलाश में निकल गया। कर्ण की तलाश सर्वश्रेष्ठ गुरु परशुराम के रूप में हुई। परशुराम को गुरु के रूप में पाकर कर्ण काफी उत्साहित था। गुरु की छत्रछाया में कर्ण ने संसार के समस्त अस्त्र – शस्त्र का अभ्यास किया। अपने गुरु से धनुर्विद्या का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त किया।
माना जाता है कर्ण का सामना करने वाला , उस समय तक कोई और वीर नहीं था।
गुरु द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी का आशीर्वाद दिया था।
द्रोणाचार्य ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ बनाए रखने के लिए एकलव्य जैसे धनुर्धारी का अंगूठा लेने से भी पीछे नहीं हटे।
एक दिन की बात है , वृक्ष के नीचे बैठे परशुराम अपना मस्तक , शिष्य कर्ण के गोद में रखकर विश्राम कर रहे थे। तभी एक बिच्छू अनायास वहां आ गया स्वभाव वश विच्छू अपना कार्य करने लगा।विच्छू , कर्ण के शरीर को खोदने लगा , इस बिच्छू के डंक का प्रहार काफी तीव्र था। सामान्य व्यक्ति के सहन करने कि कोई बात नहीं थी।
इस गहरे घाव तथा दर्द को कोई क्षत्रिय ही सहन कर सकता था।
कर्ण बिच्छू के प्रहार को सहन करता रहा था , ताकि उसके गुरु की निद्रा भंग ना हो । रक्त की धारा बह निकली , रक्त ने जब परशुराम को स्पर्श किया।
गुरु परशुराम की नींद भंग हुई। कर्ण के इस कार्य को देखकर वह प्रसन्न हुए।
कहने लगे तुमने इसे क्यों नहीं मारा क्यों ? इस दर्द को क्यों सहते रहे ?
कर्ण ने सरल जवाब दिया , मेरे इस क्रिया से आपकी नींद भंग हो जाती , ऐसा पाप में नहीं कर सकता था।
परशुराम समझ चुके थे , यह कोई साधारण बालक नहीं है।
इसने मुझसे क्षत्रिय होने की बात छुपाई और मुझसे समस्त शिक्षा ग्रहण किया।
तत्काल परशुराम क्रोधित हुए , उन्होंने कर्ण को श्राप दिया
तुमने मुझसे अपने क्षत्रिय होने की बात छुपाई
और समस्त शिक्षा को प्राप्त की।
मेरी यह शिक्षा तुम्हें तब ,
काम नहीं आएगी ,
जब मेरे शिक्षा की तुम्हें अत्यंत आवश्यकता होगी।
कर्ण का सामना युद्ध भूमि में जब अपने प्रतिद्वंदी अर्जुन के साथ होता है।
गुरु परशुराम का श्राप फलीभूत होता है। कर्ण अपने गुरु के द्वारा दी गई शिक्षा को भूल जाता है , और अर्जुन के बाणों से वीरगति को प्राप्त होता है।
रंगभूमि में कर्ण – दुर्योधन की मित्रता
गुरु द्रोणाचार्य से कौरव तथा पांडव गुरुकुल की समस्त शिक्षा ग्रहण कर चुके थे। राज्य में उनके शिक्षा का प्रदर्शन हेतु रंगभूमि का आयोजन किया गया।रंगभूमि में समाज और राज परिवार अपने पुत्रों के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा का , उसकी कुशलता का परिचय देख सके।
ऐसा ही हुआ , रंगभूमि तैयार तैयार किया गया।
महाराज धृतराष्ट्र , महामंत्री विदुर , पितामह भीष्म और समस्त राज्य परिवार तथा समाज के लोग रंगभूमि में अपने-अपने स्थान पर आ बैठे।
- एक-एक करके सभी राजपूत्र अपने शिक्षा की कुशलता का प्रदर्शन करने लगे।
- दुर्योधन – भीम ने अपनी गदा के कुशल प्रयोग का प्रदर्शन किया।
- युधिष्ठिर ने भाला , नकुल – सहदेव ने तलवार तथा भाले का प्रदर्शन किया।
- अन्य राजकुमारों ने भी अपने-अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन रंगभूमि में कर रहे थे ।
- अर्जुन जब अपने बाणों के कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे।
- उनके बाणों से कभी अग्नि , वर्षा , आंधी आदि प्रकट हो रहे थे।
- ऐसा युद्ध कौशल अद्वितीय था।
- सभी अर्जुन की जय – जयकार कर रहे थे।
भीष्म पितामह उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे , गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्य के कला प्रदर्शन पर गर्व अनुभव कर रहे थे। तभी एका एक धनुर्धारी रंगभूमि में उपस्थित हुआ , इसने सीधा अर्जुन को चुनौती प्रस्तुत की।
वह स्वयं को अर्जुन से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी सिद्ध करना चाहता था।
इस बालक को यहां भी उसे अपने अपमान का विष पीना पड़ा।
उसे सूत पुत्र होने के नाते रंगभूमि में प्रदर्शन करने से रोक दिया गया। क्योंकि यह रंगभूमि राजकुमारों के प्रदर्शन हेतु तैयार किया गया था। सूत पुत्र कर्ण को भीष्म पितामह तथा गुरु द्रोणाचार्य ने प्रदर्शन का आदेश नहीं दिया।
पांडवों के प्रदर्शन से कौरव नाराज थे , क्योंकि पांडवों ने उनसे अधिक सभ्य और श्रेष्ठ प्रदर्शन किया था। विशेषकर दुर्योधन पांडवों से सदैव ईर्ष्या करता था।
दुर्योधन के समक्ष यह अवसर स्वयं चलकर आया था।
वह अपने स्थान से कर्ण के पास आया। उसके वीरता प्रदर्शन की अनुशंसा करता रहा। किंतु बड़े तथा आदरणीय लोगों ने सूत पुत्र होने को , माध्यम बनाया तथा प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी।
- दुर्योधन के पक्ष में कोई ऐसा धनुर्धारी नहीं था जो अर्जुन का सामना कर सके।
- ऐसे वीर को अपने पक्ष में करने के लिए दुर्योधन ने एक चाल चली।
- सूत पुत्र कर्ण को अंग देश का राजा घोषित किया।
- कर्ण का राजतिलक रंगभूमि में किया।
- कर्ण , दुर्योधन के इस उपकार को जीवन भर नहीं भुला सका।
दुर्योधन असत्य , दुराचार की प्रतिमूर्ति है , यह जानते हुए भी कर्ण ने दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ा। यहीं से दुर्योधन और कर्ण की प्रगाढ़ मित्रता स्थापित हुई।
इसी मित्र के पक्ष में युद्ध करते हुए कर्ण ने अपने प्राणों की आहुति रणभूमि में दी।
द्यूत क्रीड़ा भवन में कर्ण के अशुभ वचन
हस्तिनापुर राज्य का विभाजन कर खांडवप्रस्थ का हिस्सा पांडवों को दे दिया गया। यह जंगल – झाड़ की भूमि थी। यहां पांडवों ने अपनी मेहनत केबल से इंद्रप्रस्थ राज्य की स्थापना की। इस राज्य की ख्याति दूर-दूर तक थी। स्वयं दुर्योधन ने भी इससे पूर्व राजमहल कहीं और नहीं देखा था। उसके मन में कुटिल चालों का विस्तार होने लगा।
वह सदैव पांडवों से ईर्ष्या करता था। इस प्रकार के वैभव को वह बर्दाश्त नहीं कर सका।
दुर्योधन के मामा शकुनी की कुटिल चालें सदैव उसके साथ रहती थी।
पांडवों के स्वागत समारोह का आयोजन हस्तिनापुर में किया गया। सभी पांडव अपने ज्येष्ठ पिताश्री धृतराष्ट्र के आदेश पर हस्तिनापुर आए। यहां द्यूत क्रीड़ा का आयोजन किया गया , जिसमें दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने अपने पासों से पांडवों पर विजय हासिल की।
शकुनि के पासे उसका कहना मानते थे।
- वह जितने भी अंक अपने पासों से चाहता था , उतने अंक उनके पासे देते थे।
- यही इस कुटिल चाल को पांडव पहचान न सके।
- एक-एक करके अपने सभी भाइयों , पत्नी तथा राज्य को हार गए।
- पांडवों की पत्नी द्रोपदी भी इस चाल का एक हिस्सा थी , जिसे पांडव द्युत कीड़ा में हार गए थे।
- दुर्योधन अब पांडवों का स्वामी बन गया , स्वयं पांडव उसके दास , द्रोपदी दासी।
दुर्योधन ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए द्रोपदी को राज्यसभा में दुशासन के बल प्रयोग से बुलाया। द्रोपदी ने राज्यसभा में अपने सम्मान की रक्षा के लिए सभी को आह्वान किया।
कोई उसकी सहायता के लिए उपस्थित नहीं हुआ।
दुर्योधन – दुःशासन निरंतर द्रोपदी को अपमान जनित शब्द बोल रहे थे।
कभी दासी तो कभी वाचाल , पांच पतियों वाली आदि।
कर्ण सदैव दुर्योधन के गलत कार्यों का विरोध करता था। आज उसकी जिह्वा ने साथ नहीं दिया। कर्ण के मस्तिष्क ने अपना विवेक खो दिया था। अज्ञानता वश वह भी दुर्योधन के कपट में शामिल हो गया। कर्ण जैसा वीर यौद्धा भी द्रौपदी को वेश्या जैसे अपमानजनक शब्द कह बैठा ।
कर्ण स्त्री का अपमान स्वयं के द्वारा होने से जीवन भर अपमानित रहा। पश्चाताप की अग्नि में वह जीवन भर जलता रहा। कर्ण कभी नहीं समझ पाया कि उसके जिह्वा ने किसी स्त्री का अपमान कैसे किया ? इसी अपराध बोध के कारण वह कभी द्रौपदी के सम्मुख खड़ा नहीं हो सका।
कर्ण को कैसे मालूम हुआ वह कुंती का पुत्र है
पांडवों की ओर से अंतिम शांति दूत बनकर श्री कृष्ण हस्तिनापुर आए थे। उन्होंने समस्त उपाय करके इस सम्भावी युद्ध को टालने का पुरजोर प्रयत्न किया। दुर्योधन और उसके पिता धृतराष्ट्र महत्वाकांक्षी थे। दोनों ने श्री कृष्ण की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया। अंत में श्री कृष्ण ने पांडवों की ओर से पांच गांव की मांग की। दुर्योधन ने सुई की नोक बराबर भी जमीन न देने की बात कहते हुए श्री कृष्ण की अवहेलना की।
दरबार से निराश लौटने का अर्थ था युद्ध का निश्चय हो गया था। अब कुरुक्षेत्र में सेनाओं का आमने – सामने आना ही बाकी था।
श्री कृष्ण जब पांडवों के पास वापस लौट रहे थे , राह में कर्ण से मुलाकात होती है।
कृष्ण , कर्ण से वार्तालाप करते हैं , उसे वास्तविक धर्म और अधर्म में भेद बताते हैं।कर्ण पूर्व से ही जान रहा था , धर्म के पक्ष में श्रीकृष्ण है , और अधर्म के पक्ष में स्वयं। वह यह जानते हुए भी कि अधर्म की ओर स्वयं खड़ा है। फिर वह दुर्योधन की और से युद्ध करने का निश्चय कर चुका था।
कर्ण दुर्योधन के ऋण तले दबा हुआ था। सच्चा क्षत्रिय किसी भी वचन तथा ऋण का सदैव पालन करता है , चाहे उसकी मृत्यु क्यों ना हो जाए। कर्ण भी दुर्योधन के प्रति वचनबद्ध था। दुर्योधन जिस और भी रहता उसके लिए कर्ण के प्राण सदैव हाजिर रहते।
कृष्ण ने कर्ण के वास्तविक माता-पिता का परिचय बताया ।
वह सूतपुत्र नहीं अपितु क्षत्रिय है , उसकी माता उच्च कुल की है।
कर्ण ने अपनी माता का नाम जानने के लिए अनुरोध किया। जिस पर कृष्ण ने कर्ण को बताया –
वह पांच वीर योद्धाओं का बड़ा भाई है ,
कुंती उसकी वास्तविक माता है।
स्वयं तुम मेरे कुंती बुआ के पुत्र हो।
कर्ण स्तब्ध रह जाता है…..
सूत पुत्र का अपमान वह जीवन भर सहता रहा , जबकि वह उस अपमान का भागी नहीं था। किंतु विधाता ने उसके साथ क्या खेल खेला था।
कृष्ण ने कर्ण के जन्म की संपूर्ण जानकारी सविस्तार कह सुनाई। लोक – लाज और निंदा के कारण कुंती क्यों नहीं अपना सकी। उसकी विवषता का वृतांत कर्ण के समक्ष रखा।
कर्ण की महानता को देखिए वह जिस व्यक्ति के प्राण लेने की प्रतिज्ञा कर चुका था , आज वह छोटे भाई के रूप में था। अब वह बड़ा भाई होने के नाते किस प्रकार अपने छोटे भाई का वध कर सकता था। कर्ण ने श्री कृष्ण से कहा आप –
पांडवों को मेरे विषय में कुछ नहीं बताएंगे।
अगर आपने युधिष्ठिर को यह बता दिया ,
कि मैं उसका बड़ा भाई हूं , तो वह कभी भी
स्वयं राजा नहीं बनेगा।
वह बड़े से बड़ा राज्य का मुकुट भी मेरे चरणों में डाल देगा।
स्वयं मैं उस मुकुट को अंग देश मुकुट के बदले
दुर्योधन को सौंप दूंगा , जिससे उस मुकुट का अपमान होगा।
अतः आप मेरे और पांडवों के बीच के संबंध को गुप्त ही रखें।
कर्ण की दान वीरता
कर्ण जितना बड़ा योद्धा था , उससे ज्यादा वह दानवीर था।
- अपने पास आए हुए याचक को वह कभी निराश नहीं लौटने देता था।
- कर्ण के दान वीरता की कहानी विश्व विख्यात थी।
- श्री कृष्ण के हस्तिनापुर शांति संदेश देकर निराश लौटने के बाद युद्ध का होना तय हो चुका था।
- अर्जुन निश्चित ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी था।
- अर्जुन स्वयं देवेंद्र इंद्र का पुत्र था। इंद्र को कर्ण की वीरता में तनिक भी संदेह नहीं था।
- इंद्र यह जानते थे अगर अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध में संभवत कर्ण की विजय हो।
- इस चिंतन में इंद्र काफी व्याकुल थे।
- वह अपने पुत्र की युद्ध में विजय चाहते थे।
- इंद्र कर्ण की दान वीरता को भी जानते थे।
- प्रातकाल जब कर्ण सूर्य देव की आराधना कर रहे थे।
- इंद्र ब्राह्मण के भेष में वहां प्रकट होते हैं।
कर्ण द्वारा दिए गए वचन – ‘ वह कुछ भी मांगे निराश नहीं लौटेंगे’।
इंद्र ने भिक्षा स्वरूप कर्ण के प्राण रूप में कवच – कुंडल दान में ले लिया।
कर्ण ब्राह्मण भेष में इंद्र के होने की बात पूर्व से ही जानते थे।
आराध्य देव सूर्य ने कर्ण को घटना से पूर्व ही अवगत करा दिया था। किंतु कर्ण की दान वीरता का प्रश्न था , उसने अपने द्वार पर आए याचक को निराश नहीं लौटाया। कर्ण की दान वीरता को देखकर इंद्रदेव प्रसन्न हुए , उन्होंने वरदान मांगने को कहा। कर्ण ने दान में दिए हुए वस्तु का मूल्य न लेने की बात कही , इससे दान का भाव समाप्त हो जाता है।
किंतु इंद्र के सम्मान और प्रतिष्ठा पर प्रश्न था।
वह किसी सामान्य व्यक्ति से दान ले और उसके बदले कुछ ना दे।
इसलिए देवेंद्र ने एक ऐसा अमोघ वाण दिया जिसका प्रयोग एक बार किया जा सकता था। यह बाण अपने लक्ष्य को किसी भी प्रकार से भेदन करने में सक्षम था।
कर्ण जैसा दानवीर आज तक नहीं हुआ। दानवीरों में कर्ण का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। जिसने अपने प्राण के रूप में कवच-कुंडल देने का भी मोह नहीं किया , इस जैसा दानवीर अन्यत्र दुर्लभ है।
कर्ण के प्रति कुंती की ममता
कुंती अपने पुत्र कर्ण को रंगभूमि में देखकर पहचान गई थी। कर्ण दिव्य कवच – कुंडल के साथ जन्मा था , जो उसकी पहचान थी।
किंतु भय और लज्जा के कारण वह कर्ण से कभी अपनी माता होने का भेद नहीं खोला।
श्री कृष्ण ने जब कुंती को यह बताया कि उसने कर्ण को आप के विषय में समस्त बातें बता दी है।
कुंती हिम्मत जुटा कर कर्ण से मिलने के लिए उसके शिविर में जाती है।
कुंती अपने जेष्ठ पुत्र कर्ण को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न करती है। वह अपने भाइयों के विरुद्ध शस्त्र ना उठाएं। स्वयं अपने भाइयों के पक्ष में होकर उनके अपमान और न्याय के लिए युद्ध करें।
कर्ण , माता कुंती के आदेश पर चाहते हुए भी कुछ कर नहीं सकता था।
कर्ण की विवषता थी , वह दुर्योधन के ऋण से दबा हुआ था।
दुर्योधन ने कर्ण का उस समय साथ दिया , जब रंगभूमि में उसे सूत पुत्र कहकर उपहास किया जा रहा था। दुर्योधन ही एक ऐसा व्यक्ति था , जिसने उसे अपना मित्र बनाकर अंग देश का राजा घोषित किया।
दुर्योधन ने सूत पुत्र होने का दाग धोया था।
तबसे कर्ण , दुर्योधन का ऋणी हो गया था। उसके प्राण दुर्योधन के अधीन हो गए थे। दुर्योधन चाहे कितनी भी कुटिल चालें चले , असत्य के मार्ग पर चले , पीछे – पीछे कर्ण के प्राण को चलना ही पड़ता था।
कर्ण ने अपनी विवषता माता कुंती को कह सुनाई।
यह भी वचन दिया , कि वह उनके पांचों पुत्रों का पध नहीं करेगा। दोनों के बीच काफी देर संवाद होता रहा।
माता कुंती की ममता कर्ण के कर्तव्य को डिगा नहीं पाई। निराश होकर कुंती राज महल लौटाई।
कर्ण की युद्ध वीरता राज्य का विस्तार
कर्ण निश्चित रूप से वीर योद्धा था। इनकी गिनती सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी की पंक्ति में की जाती थी। दुर्योधन द्वारा अंग देश का राजा घोषित किए जाने पर , वह अब क्षत्रिय हो चुका था।
अंगराज ने अपने बाहुबल का परिचय देते हुए अंग देश की सीमा का विस्तार किया।
एक-एक करके पृथ्वी के समस्त राज्यों को जीतकर दुर्योधन के चरणों में डाल दिया। कोई भी राजा कर्ण के वीरता और उसके साहस से अनभिज्ञ नहीं था। अनगिनत राजाओं ने कर्ण से वैर मोल लेना उचित न समझा , अपना राजमुकुट कर्ण को सौंप दिया।
जिस राजा ने कर्ण के बाहुबल और उसकी वीरता को नहीं पहचाना।
उसने स्वयं अपने काल को निमंत्रण दिया।
ऐसा करके अंगराज ने पृथ्वी के लगभग समस्त राज्यों को जीतकर अपने मित्र दुर्योधन को सौंप दिया।
कर्ण की वीरगति Karan ki Mrityu kaise hui
महाभारत युद्ध के पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य के मरणोपरांत कर्ण को मुख्य सेनानायक नियुक्त किया गया। कर्ण के सारथी रूप में नकुल – सहदेव के मामा मद्रदेश के राजा शल्य थे। पांडवों और कौरवों के बीच निरंतर घमासान युद्ध चल रहा था। दोनों और से महान वीर योद्धाओं के शरीर युद्ध भूमि में काल का ग्रास बन रहे थे।
कौरवों की ओर से भीष्म पितामह , आचार्य द्रोण , कृपाचार्य जैसे महारथी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।
पांडवों की ओर से भी अनेकों महारथी वीरगति को प्राप्त हुए थे।
कर्ण को युद्ध भूमि में आना पड़ा।
कर्ण और अर्जुन में घमासान युद्ध छिड़ गया। दोनों के बीच अनेकों महारथी आते रहे , किंतु दोनों ने एक-एक कर अपने प्रतिद्वंद्वियों को यमलोक भेज दिया।
मुख्य युद्ध कर्ण और अर्जुन के बीच में ही था।
दोनों ओर से तीखे बाणों की वर्षा हो रही थी , कोई तीखे नागों के बाण चलाता , तो कोई अग्निवर्षा करता। इस प्रकार से दोनों और घमासान युद्ध चल रहा था। अर्जुन जहां पीछे नहीं हटने वाला था , वही कर्ण भी अर्जुन से कम नहीं था।
कर्ण का एक बार अर्जुन का मुकुट हवा में उछलता हुआ निकल गया।
अर्जुन , कर्ण के इस व्यवहार से काफी क्रोधित हुआ। अर्जुन ने दुगनी रफ़्तार से कर्ण पर बाणों की वर्षा शुरू की।
इसी समय कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस जाता है।
कर्ण अपने रथ के कारण लाचार रणभूमि में युद्ध करने में असमर्थ हो जाता है। वह अपने रथ के पहिये को जमीन से निकालने का भरसक प्रयास करता है। किंतु आज काल उसके रथ पर सवार था।
तभी उसे अपने गुरु परशुराम के दिए हुए श्राप का आभास होता है।
वह निरंतर अपनी विद्या को भूलता जा रहा था और जी-जान से युद्ध भी कर रहा था।
धीरे-धीरे कर्ण अपनी समस्त विद्याओं को भूल गया। अर्जुन ने अपने बाणों से उस वीर योद्धा को वीरगति दी। अर्जुन के बाणों से घायल कर्ण ने रणभूमि में अपने प्राण त्याग दिए। अर्जुन भी कर्ण के सामने नतमस्तक था , इस जैसा वीर आज से पूर्व अर्जुन ने कभी नहीं देखा था।
कर्ण के पुत्र
कर्ण ने अपने युद्ध वीरता , दान वीरता के साथ-साथ पारिवारिक जीवन का भी पूरी निष्ठा के साथ निर्वाह किया। करण ने वृषाली से विवाह किया।
जिससे उसको निम्नलिखित संतानों की प्राप्ति हुई –
- सुदामा
- वृषसेन
- चित्रसेन
- सत्यसेन
- सुषेण
- शत्रुंजय
- वृषकेतु
- बाणसेन
- द्विपाता
- प्रसेन।
कर्ण के पुत्र , पिता की भांति ही महावीर और महारथी थे। इन्होंने अनेक राज्यों में अपनी राजधानी स्थापित की और राजकाज का निर्वाह किया। महाभारत के युद्ध में कर्ण के पुत्रों ने भी भाग लिया था।
कर्ण के अन्य उपनाम
- राधेय – अधिरथ की पत्नी राधा का पुत्र होने के कारण राधेय कहलाया।
- कर्ण – गुरु द्रोणाचार्य ने बालक के मुख पर सूर्य सा तेज देखकर राधेय का नाम कर्ण रख दिया।
- सूर्यपुत्र – श्री कृष्ण द्वारा कर्ण के वास्तविक रूप का दर्शन होने के पश्चात सूर्य पुत्र कहलाए।
- परशुराम शिष्य – गुरु परशुराम का शिष्य होने के कारण कर्ण परशुराम शिष्य भी कहलाये।
- अधिरथी – सारथी अधिरथ का पुत्र होने के कारण अधीरथी नाम से जाने गए।
- सूतपुत्र – सारथी का पुत्र होने के कारण सूत पुत्र कहलाए।
- दानवीर – कर्ण की दानवीरता सर्वश्रेष्ठ थी , जिसके कारण वह दानवीर कहलाए।
- अंगराज – दुर्योधन द्वारा रंगभूमि में सूत पुत्र को अंग देश देने के बाद अंगराज कहलाए।
- कौन्तेय – कुंती का पुत्र होने के नाते कौन्तेय कहलाय।
- रश्मिरथी – प्रकाश वान रथ का सवारी करने के लिए।
- वैकर्तना – इंद्र को अपने कवच कुंडल दान करने के कारण ।
- वायुसेन – जो जन्म से ही धन के साथ जन्मा हो।
- विजयधारी – विजयधारी नामक धनुष को धारण करने वाला।
- दानशूर – सच योद्धा की भांति लड़ने के कारण कर्ण दानशूर कहलाए।
- वृषा – द्वारा लिए गए प्रतिज्ञा का दृढ़ता से पालन करने के कारण वृषा कहलाए।
- सौता – सारथी का पुत्र होने के कारण सौता कहलाए।
अन्य कितने ही उप नामों से कर्ण को जाना गया। यह कुछ प्रमुख नाम थे जो प्रचलन में है।
वैसे दानवीर कर्ण के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए।
महाभारत से शिक्षा
महाभारत का युद्ध धर्म की रक्षा के लिए लड़ा गया था। पांडवों के रूप में धर्म का ह्रास हो रहा था , स्त्री का सम्मान तार-तार हो चुका था। अनावश्यक वचन ने सत्य के प्रति अपना कर्तव्य न निभाने मे विवशता दिखाई। शिक्षा के संबंधी गलत धारणाओं के कारण उचित छात्र वंचित रह जाते।
- महत्वकांक्षा के लिए व्यक्ति किस स्तर तक आ जाता है।
- अपने और प्राय के बीच किस प्रकार का भेदभाव होता है।
- निरंतर कुटिल चालों के बीच बैठने से स्वभाव में कुटिलता का आना।
- अनावश्यक प्रतिज्ञा और आशीर्वाद के कारण सत्य से विमुख होकर , असत्य का साथ देना आदि।
अनेक कारणों से महाभारत का युद्ध हुआ था।
- महाभारत में निहित गीता की शिक्षा , श्री कृष्ण के मुख से निकला प्रत्येक शब्द जीवन के मूल शाश्वत सिद्धांतों को बताता है।
- कर्म और फल के बीच के अंतर को व्यक्ति तथा समाज के सम्मुख प्रकट करता है।
- किस प्रकार व्यक्ति निष्काम भाव से अपने कार्य करता है।
- समस्त विस्तार कृष्ण ने अपने प्रिय अर्जुन को कुरुक्षेत्र में बताया।
- स्वयं अपनों के विरुद्ध भी धर्म की रक्षा के लिए अगर शस्त्र उठाए जाएं तो वह उचित है।
- धर्म तथा सत्य की स्थापना के लिए दोषी को दंड देना न्याय संगत है।
- किसी भी ऐसे कार्य को करने से बचना चाहिए , जिससे किसी व्यक्ति तथा समाज की हानि होती है।
धृतराष्ट्र तथा उसके पुत्र दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं ने महाभारत का युद्ध लड़ने पर विवश किया था। इस प्रकार की महत्वकांक्षाओं से व्यक्ति को बचना चाहिए। ऐसे कार्य किए जाने चाहिए , जिससे किसी व्यक्ति का सम्मान सुरक्षित रहें , समाज की हानि ना हो।
अन्यथा महाभारत युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए।
महाभारत कोई रणभूमि नहीं है , यह सर्वत्र विद्यमान है। महाभारत व्यक्ति के मस्तिष्क में भी है। अगर दुराचार , अनाचार का व्यवहार करता है तो उसके मस्तिष्क , सोचने की क्षमता , विवेक सभी का नाश निश्चित है यही महाभारत है।
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Bahut achche tarike se likha gya hai
Dhanyavaad