ध्रुवस्वामिनी पात्र योजना dhroov swamini patr yojna

ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद की कालजई रचना है। यह रचना स्वाधीनता संग्राम में स्त्रियों को जागरूक करने और अपने अधिकारों के रक्षा हेतु उन्हें प्रेरित करने के उद्देश्य से लिखा गया था।

जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखे गए समस्त नाटक समस्या तथा समाधान पर आधारित है। इस लेख में आप ध्रुवस्वामिनी नाटक में पात्र योजना का विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे और लेखक के दृष्टिकोण से परिचित होंगे।

ध्रुवस्वामिनी पात्र योजना jayshankar prsad ka natak

जयशंकर प्रसाद के नाटक का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि उन्होंने पात्र योजना को बड़े ही सहजता से प्रबंध किया है।

सीमित पात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ उन्होंने समस्त नाटक को लिखा है। ध्रुवस्वामिनी में पात्रों की संख्या उनमें से एक उदाहरण है।

इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी प्रमुख पात्र है जो नारी चिंतन के विषयों को समग्र रूप से उद्घाटित करती है। नारी के विषयों को प्रस्तुत करती है। इसमें कोमा, मंदाकिनी जैसे पात्रों ने नारी अधिकारों के लिए स्वर बुलंद किया है।

इस नाटक में पात्रों के माध्यम से महिला की समस्याओं को समाज के महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को उजागर किया है। विशेष रूप से स्त्री के पुनर्विवाह और उसे उपभोग की वस्तु समझने वाली मानसिकता को उजागर करते हुए उससे समाधान का मार्ग भी बताया गया है।

शकराज की मृत्यु के बाद उसकी लाश को मांगने ध्रुवस्वामिनी के पास जाती है और बड़े ही मार्मिक स्वर में कहती है

” रानी तुम भी इस्त्री हो ,क्या इस्त्री की व्यथा नहीं समझोगी ………….. सबके जीवन में एक बार प्रेम की दीपावली जलती है।  

जली होगी अवश्य तुम्हारे भी जीवन में वह आलोक का महोत्सव आया होगा। जिसमें हृदय उधार बनता है और सर्वस्व दान करने का उत्साह करता है। मुझे शक राज का शव  चाहिए।”

उसे शकराज का शव मिल जाता है। किंतु समाज के उनमें सैनिक उसे और आमत्य व मिहिरदेव को शक दुर्ग में हुए कत्लेआम में मारा जाता है। अनुभूति में दार्शनिक स्वभाव वाली उदार हृदया कोमा नारी के कोमल भावों व  हृदय को पाठकों के सामने उपस्थित कर सब की सहानुभूति प्राप्त करती है।

मंदाकिनी भी इस नाटक की एक काल्पनिक पात्र है। अद्भुत राष्ट्रप्रेम से ओत -प्रोत  मंदाकिनी न्याय के समर्थक और नारी के अधिकारों के प्रति सार्थक स्त्री पात्र है। वह निडर साहसी स्पष्ट वक्ता है।

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प्रसाद जी ने उसे एक प्रकार से ध्रुवस्वामिनी की पूरक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है।

अद्भुत राष्ट्रभक्ति एवं सौर्य से उद्वेलित मंदाकिनी चंद्रगुप्त की बहन के रूप  अद्भुत गुणों से विभूषित है। उसके कथन में कैसा उत्साह हिलोरे ले रहा है।

वह शकराज  द्वारा ध्रुवस्वामिनी को उपहार में मांगने को अनुचित बतलाती है। वह शिखर स्वामी  से इसे ना मानने का आग्रह करती है-

” अमात्य यह कैसी व्यवस्था है तुम मृत्युदंड के लिए उत्सुक महादेवी को आत्महत्या करने के लिए प्रस्तुत है फिर यह किस्सा क्यों? एक बार अंतिम बल से परीक्षा  कर देखो बचोगे तो राष्ट्रप्रेम और सम्मान ही बचेगा नहीं तो सर्वनाश।”

अन्याय का प्रतिरोध कर वह निडर होकर करती है और रामगुप्त से कहती है-

” राजा का भय मंदा का भला नहीं कर सकता ,तुम लोगों में यदि कुछ भी बुद्धि होती तो इस अपनी कुल की मर्यादा नारी को शत्रु के दुर्ग में यूं ना भेजते। भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न कर के ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है ,किंतु तुम लोगों की दश्यूवृति ने उन्हें लूटा है।”

उन्हें एक पराधीनता से मुक्ति पानी है। पुरुषों के अत्याचार ,अन्याय ,दमन ,शोषण का मुखर विरोध करता है। वह मुक  पशु की भांति किसी को भी दे दी जाए।

यदि पुरुष नारी की रक्षा उसकी मर्यादा की रक्षा करने में असमर्थ है तो उसे पति कहलवाने का कोई अधिकार नहीं।

ऐसे कायर व्यक्ति से मुक्ति पाने का उसे पूर्ण अधिकार है। पुरोहित राजा राम गुप्त को क्लिव घोषित करते हुए कहता है –

” जिसे अपनी स्त्री को दूसरों की अंग दामिनी बनाने के लिए भेजने में संकोच नहीं वह क्लिव  नहीं है तो और क्या है ?मैं स्पष्ट कहता हूं कि धर्मशास्त्र रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष की आज्ञा देता है।”

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इस नाटक के माध्यम से प्रसाद जी ने नारी जीवन से जुड़ी कुछ ज्वलंत समस्याओं और प्रश्नों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने नारी के अधिकारों का प्रश्न उठाया है।

पुरुष प्रधान समाज में नारी को भोग विलास की वस्तु मानकर उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को कुचलने का प्रयत्न किया जाता है। उसे प्रसाद जी अनुपयुक्त  मानते हैं।

ध्रुवस्वामिनी इसीलिए शकराज के पास उपहार रूप में जाने से इंकार करती हुई रामगुप्त से कहती है।

” मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को पशु संपत्ति समझ कर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है वह मेरे साथ नहीं चल सकता यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते तो तुम मुझे बेच भी नहीं सकते।”

नारी को पुनर्विवाह का भी पूरा अधिकार है पुरुष यदि पुनर्विवाह कर सकता है तो नारी  क्यों नहीं कर सकती ? यदि किसी स्त्री का पति रामगुप्त की भांति कायर और क्लीव हो तो उसे मुक्ति पाने का उसे पूर्ण अधिकार है।

विवाह एक पवित्र बंधन है किंतु रामगुप्त और ध्रुवस्वामिनी को जिस भ्रांतिपुर्ण  बंधन में विवाह द्वारा बांध दिया गया है ,वह अनुचित है धर्म का उद्देश्य इस तरह पददलित नहीं किया जा सकता।

शास्त्र की स्पष्ट आज्ञा  है कि जो पुरुष अपनी पत्नी के गौरव की रक्षा नहीं कर सकता ,उसे पति का अधिकार नहीं मिल सकता। 

प्रसाद जी ने इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से यह संकेत भी दिया है कि नारी को अन्याय ,अत्याचार का प्रबल विरोध करना चाहिए युगों-युगों की दासता को त्याग कर अपने भीतर एक चेतना का अनिमेष करना चाहिए।

समग्र रूप से यह नाटक नारी जीवन की विभिन्न समस्याओं को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करता है। नाटक की रचना रंगमंच के लिए की जाती है।

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अतः किसी भी नाटक की सफलता उसकी रंगमंच इयत्ता एवं अभिनेता पर निर्भर करती है प्रसाद जी  के अन्य नाटकों पर यह आरोप लगाया जाता है कि ,वह पाठक अधिक पाठ्य अधिक है।

अभिनय कम दृश्यों की अधिकता पात्रों की  अधिकता भाषा की क्लिष्टता स्वतंत्र कथनों की भरमार उनके नाटक रंगमंच पर अभि निष्ठ करने योग्य नहीं है साथी अनेक अधिकतर नाटक आकार में बड़े हैं जिसमें उनका मंचन बिना कुशल संपादन के हो जाना असंभव है किंतु ध्रुवस्वामिनी इन आरोपों से पूर्णता मुक्त है।

इस नाटक की कथावस्तु संक्षिप्त रोचक व गतिशील है उसका आकार भी उपयुक्त ही है छात्रों की संख्या सीमित है गीत योजना प्रसंगानुसार है भाषा में क्लिष्टता नहीं है देशों की संख्या सीमित है।

कोई भी दृश्य ऐसा नहीं है जिसे रंगमंच पर प्रस्तुत न किया जा सके। नाटक तीन अंको में विभाजित है संवाद छोटे-छोटे सरल भाषा में है।

स्वच्ता कथन बहुत कम है कथानक संगठन दृश्य योजना पात्र योजना संवाद योजना आदि सभी दृष्टियों से विचार करने पर यह नाटक रंगमंच के लिए पूर्णता उपयुक्त है।

सारांशतः

यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी के रूप में एक सफल नाट्य कृति प्रस्तुत की है हिंदी नाट्य रचना में इस नाटक में प्रमुख स्थान है अपने कथ्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से यह नाटक एक सफल प्रस्तुति है।

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