प्रस्तुत लेख में जयशंकर प्रसाद के जीवन साहित्य और उनकी लेखनी विशेषता पर विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे। इस लेख के अध्ययन उपरांत आप लगभग जयशंकर प्रसाद के जीवन, साहित्य आदि को जान जाएंगे। इस लेख के अध्ययन से आप अपनी परीक्षा की तैयारी कर सकते हैं।
jayshankar prsad ki mukhy rachana
प्रसाद जी कीरचनाओं का संक्षिप्त परिचय
पूरा नाम महाकवि जयशंकर प्रसाद
जन्म 30 जनवरी 1889 ईस्वी
जन्म भूमि वाराणसी उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 नवंबर सन 1937 (आयु 38 वर्ष)
मृत्यु स्थान वाराणसी उत्तर प्रदेश
अभिभावक देवी प्रसाद साहू
कर्मभूमि वाराणसी
कर्म-क्षेत्र उपन्यासकार ,नाटककार ,कवि ,
मुख्य रचनाएं चित्रधारा ,कामायनी ,आंसू ,लहर ,झरना ,एक घूंट ,विशाख ,अजातशत्रु ,आकाशदीप ,आंधी ,ध्रुव स्वामिनी ,तितली ,और कंकाल।
विषय कविता ,उपन्यास ,नाटक ,और निबंध।
भाषा हिंदी ,ब्रजभाषा ,खड़ी बोली।
नागरिकता भारतीय
शैली वर्णात्मक ,भावात्मक ,अलंकारिक ,सुक्ति परक ,प्रतिकात्मक।
जयशंकर प्रसाद की प्रमुख रचनाएं
अरुण यह मधुमय देश हमारा,
आत्मकथ्य ,
आह वेदना मिली विदाई ,
चित्रधार ,
तुम कनक किरन ,
दो बूंदे ,
प्रणय गीत ,
बीती विभावरी जाग री ,
भारत महिमा ,
ले चल वहां भुलावा देकर ,
सब जीवन बीता जाता है ,
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से।
जन्म
जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिंदी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे। उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म सन 1889 ई.( माघ शुक्ल दशमी संवत 1946 वि.) वाराणसी उत्तर प्रदेश में हुआ था। कवि के पितामह शिवरत्न साहू वाराणसी के अत्यंत प्रतिष्ठित नागरिक थे। और एक विशेष प्रकार की सुरती (तंबाकू) बनाने के कारण सुंघनी साहू के नाम से विख्यात हुए। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनके यहां विद्वानों कलाकारों का सादर सम्मान होता था। जयशंकर प्रसाद के पिता देवी प्रसाद साहु ने भी अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन किया। इस परिवार की गड़णा वाराणसी के अतिशय समृद्धि घरानों में थी। और धन वैभव का कोई अभाव ना था।
प्रसाद का कुटुंब शिव का उपासक था माता-पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव से बड़ी प्रार्थना की थी वैद्यनाथ धाम के झारखंड से लेकर उज्जैन के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप पुत्र जन्म स्वीकार कर लेने के कारण शैशव में जयशंकर प्रसाद को झारखंडी कहकर पुकारा जाता था वजन वैद्यनाथधाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ
शिक्षा जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरंभ हुई संस्कृत हिंदी फारसी उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त है इनमें रस्में सिद्ध प्रमुख थे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के लिए दिनबंधु ब्रह्मचारी शिक्षक थे कुछ समय के बाद स्थानीय क्वींस कॉलेज में प्रसाद का नाम लिख दिया गया पर यहां पर वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके प्रसाद एक और व्यवसाई व्यक्ति थे और नियमित रुप से अध्ययन करते थे।
पारिवारिक विपत्तियां
प्रसाद की 12 वर्ष की अवस्था थी तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इसी के बाद परिवार में गृह क्लेश आरंभ हुआ और पैतृक व्यवसाय को इतनी छती पहुंचेगी वही सुंघनी साहू का परिवार जो वैभव में लोड तथा ऋण के बाहर से दब गया। पिता की मृत्यु के दो-तीन वर्षों के भीतर ही प्रसाद की माता का भी देहांत हो गया। और सबसे दुर्भाग्य का दिन वह आया जब उनके जेष्ठ भ्राता शुभ रत्न चल बसे। तथा 17 वर्ष की अवस्था में ही प्रसाद को एक भारी उत्तरदायित्व संभालना पड़ा प्रसाद का अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता था। उन्होंने अपने जीवन में केवल तीन चार बार यात्राएँ की थी। जिनकी छाया उनके कतिपय रचनाओं में प्राप्त हो जाती है। प्रसाद को काव्य सृष्टि की आरंभिक प्रेरणा घर पर होने वाली समस्या पुर्तियों से प्राप्त हुई जो विद्वानों की मंडली में उस समय प्रचलित थी।
बहुमुखी प्रतिभा
प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी–कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या में उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र–चित्रण का, भाषा–सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।
उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्व कर देता है।
कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास–सभी क्षेत्रों में प्रसाद जी एक नवीन ‘स्कूल‘ और नवीन जीवन–दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे ‘छायावाद‘ के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव–अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द–विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसरों को नही।
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आरंभिक रचनाएं
कहा जाता है कि नौ वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने ‘कलाधर‘ उपनाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपने गुरु रसमयसिद्ध को दिखाया था। उनकी आरम्भिक रचनाएँ यद्यपि ब्रजभाषा में मिलती हैं। पर क्रमश: वे खड़ी बोली को अपनाते गये और इस समय उनकी ब्रजभाषा की जो रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनका महत्त्व केवल ऐतिहासिक ही है। प्रसाद की ही प्रेरणा से 1909 ई. में उनके भांजे अम्बिका प्रसाद गुप्त के सम्पादकत्व में “इन्दु” नामक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। प्रसाद इसमें नियमित रूप से लिखते रहे और उनकी आरम्भिक रचनाएँ इसी के अंकों में देखी जा सकती हैं।
संस्करण
हिमाद्री तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभो समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञा सोच लो प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढे चलो बढे चलो
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ, विकीर्ण दिव्य दाह सी सपूत मात्रभूमि के, रुको न शूर साहसी
अराती सैन्य सिन्धु में, सुवाढ़ वाग्नी से जलो प्रवीर हो जयी बनो, बढे चलो बढे चलो
कालक्रम के अनुसार ‘चित्राधार‘ प्रसाद का प्रथम संग्रह है। इसका प्रथम संस्करण 1918 ई. में हुआ। इसमें कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध सभी का संकलन था और भाषा ब्रज तथा खड़ी बोली दोनों थी। लगभग दस वर्ष के बाद 1928 में जब इसका दूसरा संस्करण आया, तब इसमें ब्रजभाषा की रचनाएँ ही रखी गयीं। साथ ही इसमें प्रसाद की आरम्भिक कथाएँ भी संकलित हैं। ‘चित्राधार‘ की कविताओं को दो प्रमुख भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक खण्ड उन आख्यानक कविताओं अथवा कथा काव्यों का है, जिनमें प्रबन्धात्मकता है। अयोध्या का उद्धार, वनमिलन, और प्रेमराज्य तीन कथाकाव्य इसमें संगृहीत हैं। ‘अयोध्या का उद्धार‘ में लव द्वारा अयोध्या को पुन: बसाने की कथा है। इसकी प्रेरणा कालिदास का ‘रघुवंश‘ है।
‘वनमिलन‘ में ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम‘ की प्रेरणा है। ‘प्रेमराज्य‘ की कथा ऐतिहासिक है। ‘चित्रधार‘ की स्फुट रचनाएँ प्रकृतिविषयक तथा भक्ति और प्रेमसम्बन्धिनी है। ‘कानन कुसुम‘ प्रसाद की खड़ीबोली की कविताओं का प्रथम संग्रह है। यद्यपि इसके प्रथम संस्करण में ब्रज और खड़ी बोली दोनों की कविताएँ हैं, पर दूसरे संस्करण (1918 ई.) तथा तीसरे संस्करण (1929 ई.) में अनेक परिवर्तन दिखायी देते हैं और अब उसमें केवल खड़ीबोली की कविताएँ हैं। कवि के अनुसार यह 1966 वि. (सन् 1909 ईसवी) से 1974 वि. (सन् 1917 ईसवी) तक की कविताओं का संग्रह है। इसमें भी ऐतिहासिक तथा पौराणिक कथाओं के आधार पर लिखी गयी कुछ कविताएँ हैं।
रचनाएं
प्रसाद जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है–
कामायनी
कामायनी महाकाव्य कवि प्रसाद की अक्षय कीर्ति का स्तम्भ है। भाषा, शैली और विषय–तीनों ही की दृष्टि से यह विश्व–साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। ‘कामायनी‘ में प्रसादजी ने प्रतीकात्मक पात्रों के द्वारा मानव के मनोवैज्ञानिक विकास को प्रस्तुत किया है तथा मानव जीवन में श्रद्धा और बुद्धि के समन्वित जीवन–दर्शन को प्रतिष्ठा प्रदान की है।
आँसू
आँसू कवि के मर्मस्पर्शी वियोगपरक उदगारों का प्रस्तुतीकरण है।
लहर
यह मुक्तक रचनाओं का संग्रह है।
झरना
प्रसाद जी की छायावादी शैली में रचित कविताएँ इसमें संगृहीत हैं।
चित्राधार
चित्राधार प्रसाद जी की ब्रज में रची गयी कविताओं का संग्रह है।
गद्य रचनाएं
प्रसाद जी की प्रमुख गद्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं–
नाटक
चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कन्दगुप्त, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु आदि।
कहानी–संग्रह
प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी तथा इन्द्रजाल आपके कहानी संग्रह हैं।
उपन्यास
तितली और कंकाल।
निबन्ध
अन्य कविताओं में विनय, प्रकृति, प्रेम तथा सामाजिक भावनाएँ हैं। ‘कानन कुसुम‘ में प्रसाद ने अनुभूति और अभिव्यक्ति की नयी दिशाएँ खोजने का प्रयत्न किया है। इसके अनन्तर कथाकाव्यों का समय आया है। ‘प्रेम पथिक‘ का ब्रजभाषा स्वरूप सबसे पहले ‘इन्दू‘ (1909 ई.) में प्रकाशित हुआ था और 1970 वि. में कवि ने इसे खड़ीबोली में रूपान्तरित किया। इसकी विज्ञप्ति में उन्होंने स्वयं कहा है कि “यह काव्य ब्रजभाषा में आठ वर्ष पहले मैंने लिखा था।” ‘प्रेम पथिक‘ में एक भावमूलक कथा है। जिसके माध्यम से आदर्श प्रेम की व्यंजना की गयी है।
प्रकाशन
‘करुणालय‘ की रचना गीतिनाट्य के आधार पर हुई है। इसका प्रथम प्रकाशन ‘इन्दु‘ (1913 ई.) में हुआ। ‘चित्राधार‘ के प्रथम संस्करण में भी यह है। 1928 ई. में इसका पुस्तक रूप में स्वतन्त्र प्रकाशन हुआ। इसमें राजा हरिश्चन्द्र की कथा है। ‘महाराणा का महत्त्व‘ 1914 ई. में ‘इन्दु‘ में प्रकाशित हुआ था। यह भी ‘चित्राधार‘ में संकलित था, पर 1928 ई. में इसका स्वतन्त्र प्रकाशन हुआ। इसमें महाराणा प्रताप की कथा है। ‘झरना‘ का प्रथम प्रकाशन 1918 में हुआ था। आगामी संस्करणों में कुछ परिवर्तन किए गए। इसकी अधिकांश कविताएँ 1914-1917 के बीच लिखी गयीं, यद्यपि कुछ रचनाएँ बाद की भी प्रतीत होती हैं। ‘झरना‘ में प्रसाद के व्यक्तित्व का प्रथम बार स्पष्ट प्रकाशन हुआ है और इसमें आधुनिक काव्य की प्रवृत्तियों को अधिक मुखर रूप में देखा जा सकता है।
इसमें छायावाद युग का प्रतिष्ठापन माना जाता है। ‘आँसू‘ प्रसाद की एक विशिष्ट रचना है। इसका प्रथम संस्करण 1982 वि. (1925 ई.) में निकला था। दूसरा संस्करण 1990 वि. (1933 ई.) में प्रकाशित हुआ। ‘आँसू‘ एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य है, जिसमें कवि की प्रेमानुभूति व्यजित है। इसका मूलस्वर विषाद का है। पर अन्तिम पंक्तियों में आशा–विश्वास के स्वर हैं। ‘लहर‘ में प्रसाद की सर्वोत्तम कविताएँ संकलित हैं। इसमें कवि की प्रौंढ़ रचनाएँ हैं। इसका प्रकाशन 1933 ई. में हुआ। ‘कामायनी‘ प्रसाद का निबन्ध काव्य है। इसका प्रथम संस्करण 1936 ई. में प्रकाशित हुआ था। कवि का गौरव इस महाकाव्य की रचना से बहुत बढ़ गया। इसमें आदि मानव मनु की कथा है, पर कवि ने अपने युग के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया है।
पक्ष
प्रसाद जी के काव्य की भावपक्षीय तथा कलापक्षीय विशेषताएँ निम्नवत् हैं–
-
भाव पक्ष
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।
खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये
अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री।
प्रसाद जी की रचनाओं में जीवन का विशाल क्षेत्र समाहित हुआ है। प्रेम, सौन्दर्य, देश–प्रेम, रहस्यानुभूति, दर्शन, प्रकृति चित्रण और धर्म आदि विविध विषयों को अभिनव और आकर्षक भंगिमा के साथ आपने काव्यप्रेमियों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। ये सभी विषय कवि की शैली और भाषा की असाधारणता के कारण अछूते रूप में सामने आये हैं। प्रसाद जी के काव्य साहित्य में प्राचीन भारतीय संस्कृति की गरिमा और भव्यता बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत हुई है।
आपके नाटकों के गीत तथा रचनाएँ भारतीय जीवन मूल्यों को बड़ी शालीनता से उपस्थित करती हैं। प्रसाद जी ने राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान को अपने साहित्य में सर्वत्र स्थान दिया है। आपकी अनेक रचनाएँ राष्ट्र प्रेम की उत्कृष्ट भावना जगाने वाली हैं। प्रसाद जी ने प्रकृति के विविध पक्षों को बड़ी सजीवता से चित्रित किया है। प्रकृति के सौम्य–सुन्दर और विकृत–भयानक, दोनों स्वरूप उनकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं।
इसके अतिरिक्त प्रकृति का आलंकारिक, मानवीकृत, उद्दीपक और उपदेशिका स्वरूप भी प्रसादजी के काव्य में प्राप्त होता है। ‘प्रसाद‘ प्रेम और आनन्द के कवि हैं। प्रेम–मनोभाव का बड़ा सूक्ष्म और बहुविध निरूपण आपकी रचनाओं में हुआ है। प्रेम का वियोग–पक्ष और संयोग–पक्ष, दोनों ही पूर्ण छवि के साथ विद्यमान हैं। ‘आँसू‘ आपका प्रसिद्ध वियोग काव्य है।
उसके एक–एक छन्द में विरह की सच्ची पीड़ा का चित्र विद्यमान है; यथा–
जो धनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति–सी छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी।।
प्रसादजी का सौन्दर्य वर्णन भी सजीव, सटीक और मनमोहक होता है। श्रद्धा के सौन्दर्य का एक शब्द चित्र दर्शनीय है–
नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ–वन बीच गुलाबी रंग।।
‘प्रसाद‘ हिन्दी काव्य में छायावादी प्रवृत्ति के प्रवर्तक हैं। ‘आँसू‘ और ‘कामायनी‘ आपके छायावादी कवित्व के परिचायक हैं। छायावादी काव्य की सभी विशेषताएँ आपकी रचनाओं में प्राप्त होती हैं।
प्रसादजी भावों के तीव्रता और मूर्तता प्रदान करने के लिए प्रतीकों का सटीक प्रयोग करते हैं। प्रसाद का काव्य मानव जीवन को पुरुषार्थ और आशा का संदेश देता है। प्रसाद का काव्य मानवता के समग्र उत्थान और चेतना का प्रतिनिधि है। उसमें मानव कल्याण के स्वर हैं। कवि ‘प्रसाद‘ ने अपनी रचनाओं में नारी के विविध, गौरवमय स्वरूपों के अभिनव चित्र उपस्थित किए हैं।
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कला पक्ष
‘प्रसाद‘ के काव्य का कलापक्ष भी पूर्ण सशक्त और संतुलित है। उनकी भाषा, शैली, अलंकरण, छन्द–योजना, सभी कुछ एक महाकवि के स्तरानुकूल हैं।
भाषा
प्रसाद जी की भाषा के कई रूप उनके काव्य की विकास यात्रा में दिखाई पड़ते हैं। आपने आरम्भ ब्रजभाषा से किया और फिर खड़ीबोली को अपनाकर उसे परिष्कृत, प्रवाहमयी, संस्कृतनिष्ठ भाषा के रूप में अपनी काव्य भाषा बना लिया। प्रसाद जी का शब्द चयन ध्वन्यात्मक सौन्दर्य से भी समन्वित है; यथा–
खग कुल कुल कुल–सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा।
प्रसाद जी ने लाक्षणिक शब्दावली के प्रयोग द्वारा अपनी रचनाओं में मार्मिक सौन्दर्य की सृष्टि की है।
शैली
प्रसाद जी की काव्य शैली में परम्परागत तथा नव्य अभिव्यक्ति कौशल का सुन्दर समन्वय है। उसमें ओज, माधुर्य और प्रसाद–तीनों गुणों की सुसंगति है। विषय और भाव के अनुकूल विविध शैलियों का प्रौढ़ प्रयोग उनके काव्य में प्राप्त होता है। वर्णनात्मक, भावात्मक, आलंकारिक, सूक्तिपरक, प्रतीकात्मक आदि शैली–रूप उनकी अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करते हैं। वर्णनात्मक शैली में शब्द चित्रांकन की कुशलता दर्शनीय होती है।
अलंकरण
प्रसाद जी की दृष्टि साम्यमूलक अलंकारों पर ही रही है। शब्दालंकार अनायास ही आए हैं। रूपक, रूपकातिशयोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीक आदि आपके प्रिय अलंकार हैं।
छन्द
प्रसाद जी ने विविध छन्दों के माध्यम से काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है। भावानुसार छन्द–परिवर्तन ‘कामायनी‘ में दर्शनीय है। ‘आँसू‘ के छन्द उसके विषय में सर्वधा अनुकूल हैं। गीतों का भी सफल प्रयोग प्रसादजी ने किया है। भाषा की तत्समता, छन्द की गेयता और लय को प्रभावित नहीं करती है। ‘कामायनी‘ के शिल्पी के रूप में प्रसादजी न केवल हिन्दी साहित्य की अपितु विश्व साहित्य की विभूति हैं। आपने भारतीय संस्कृति के विश्वजनीन सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है तथा इतिहास के गौरवमय पृष्ठों को समक्ष लाकर हर भारतीय हृदय को आत्म–गौरव का सुख प्रदान किया है। हिन्दी साहित्य के लिए प्रसाद जी माँ सरस्वती का प्रसाद हैं।
छायावाद की स्थापना
जयशंकर प्रसाद ने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी बने। काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार ‘कामायनी‘ है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकाव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है।
उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानन्दन पंत इसे ‘हिंदी में ताजमहल के समान‘ मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है। जयशंकर प्रसाद ने अपने दौर के पारसी रंगमंच की परंपरा को अस्वीकारते हुए भारत के गौरवमय अतीत के अनमोल चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरनीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी।
उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यंत दर्शनीय है और इन नाटकों में कई अत्यंत सुंदर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं। ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से‘, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा‘ जैसे उनके नाटकों के गीत सुप्रसिद्ध रहे हैं।
निधन
जयशंकर प्रसाद जी का देहान्त 15 नवम्बर, सन् 1937 ई. में हो गया। प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शो की रक्षा का सफल प्रयास किया गया है। और ‘आँसू’ ने उनके हृदय की उस पीड़ा को शब्द दिए जो उनके जीवन में अचानक मेहमान बनकर आई और हिन्दी भाषा को समृद्ध कर गई।
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निष्कर्ष –
जयशंकर प्रसाद छायावादी चार प्रमुख कवियों में से एक थे जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक नया आयाम प्रदान किया। यह मुख्य रूप से नाटककार तथा कवि थे। इन्होंने नाटक के माध्यम से भारत की सामान्य जनता को उनके अतीत से परिचय कराया।
चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त जैसे नाटक प्रस्तुत कर इन्होंने भारत के अतीत को प्रस्तुत किया, उनके गौरव गाथा को सुनाया। साथ ही कविता के माध्यम से प्रेरित कर स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने को ललकारा।
साहित्य की लेखनी इस प्रकार रखी कि उनका संदेश सामान्य जनमानस तक पहुंच सके। उनके इसी शैली के कारण आज जयशंकर प्रसाद का नाम साहित्य के क्षेत्र में बड़े आदर के साथ लिया जाता। उनके साहित्य में साहित्य के सभी क्लासिक शैली को भी देखा गया है।
उन्होंने रस, अलंकार, छंद, दोहा आदि संपूर्ण उपागम का प्रयोग कर साहित्य को संवारा था।
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Sahi janakari di he. Dhayawad
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आपकी रचना बहुत सुन्दर लगी, बहुत ही शानदार रचना है आगे भी आपकी ऐसी ही रचनाओं का इन्तजार रहेगा। हमारे लोकप्रिय कवियों को सुनने एवं साहित्य के अलग अलग विषयों से जुड़ी हुई रचनाओं
छंद, कविता, व्यंग्य एवं कहानियो आदि को सुनने – देखने के लिए एवं अपनी रचनाओं को हमारे माध्यम से वीडियो पोस्ट कर सकते है
जयशंकर प्रसाद की प्रमुख रचनाए मेरे दिल को छूने लगी । धन्यवाद सही जानकारी देने के लिए ।
जयशंकर प्रसाद मेरे बहुत प्रिय लेखक हैं और इनके सभी रचनाएं पढ़ने का मुझे बहुत शौक है
क्या आपने जयशंकर प्रसाद जी की अन्य रचनाएं भी लिखी है? अगर ऐसा है तो मुझे बताइए आपने कहा लिखा है, मैं पढ़ना चाहता हूं, आपकी लेखन शैली बहुत अच्छी है