आदिकाल का समय 1050 से 1375 तक का माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल कहा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल से नामकरण किया।
इस काल में अधिकतर रासो ग्रंथ लिखे गए जैसे –
- विजयपाल रासो ,
- हम्मीर रासो ,
- खुमान रासो ,
- बीसलदेव रासो ,
- पृथ्वीराज रासो ,
- परमाल रासो आदि
विद्यापति की कृति कीर्तिपताका और पदावली की भी रचना इसी काल में हुई। सिद्ध साहित्य , जैन साहित्य और लोक साहित्य भी इस काल अवधि में प्रचुर मात्रा में लिखे गए थे।
आदिकाल की मुख्य प्रवृत्तियां
आदिकाल की मुख्य प्रवृत्तियां इस प्रकार है
वीर रस प्रधान्य –
- यह सर्वमान्य है कि इस काल में वीर रस प्रधान रचनाएं अधिक हुई है। इसलिए इस काल को वीरगाथा काल कहा गया।
- लेखक राजा के आश्रित थे , अतः लेखकों को ना चाहते हुए भी राजा की वीरता अथवा उसकी महानता और उसके भुजबल का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना पड़ता था। जिससे राजा प्रसन्न होकर रचनाकारों को प्रोत्साहन देता था जिससे उनकी जीविका चलती थी।
- सभी रासो ग्रंथ वीर रसात्मक ग्रंथ है।
- वीर रस के प्रधानों का कारण यह है कि उस समय युद्ध के बादल चारों ओर मंडरा रहे थे , अर्थात विदेशी आक्रमण निरंतर हुआ करते थे और साम्राज्य के विस्तार के लिए राजा एक दूसरे के प्रति निरंतर युद्ध किया करते थे।
- देश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था।
- राजा एक दूसरे पर आक्रमण किया करते थे उससे राज्य विस्तार व उनकी सुंदर कन्या व सभी रानियां छीनना चाहते थे।
- पृथ्वीराज रासो , बीसलदेव रासो आदि ग्रंथों में युद्ध का मूल कारण रुपवती नारियों को माना गया है।
“बारह बरस ले कुकुर जिए , तेरह लो जीए सीयार ,
बरस अट्ठारह छत्रिय जिए , आगे जीवन को धिक्कार। “
- आदिकाल के कुछ ही वीर काव्य में साहित्यिक सौंदर्य मिलता है। अधिकतर में केवल वर्णन की प्रधानता है।
- हमीर रासो मैं राजा हम्मीर के युद्धों का वर्णन मिलता है।
- परमाल रासो में राजा परमाल के युद्धों का वर्णन मिलता है। पृथ्वीराज रासो में राजा पृथ्वीराज के युद्धों का वर्णन मिलता है।
युद्धों का सजीव वर्णन –
- वीरगाथा काव्य में वीर रस के साथ-साथ कवियों ने युद्ध कौशल की प्रस्तुति अनेक रूपों में की है।
- आदिकाल के कवि दरबारी कवियों का प्रमुख उद्देश्य अपने आश्रय दाता व राजा की शूरवीरता तथा पराक्रम को दर्शाना रहा है।
- युद्धों का चित्रण इस काल में मुख्य विषय रहा वह वर्णन सुंदर सजीव एवं यथार्थ है।
- पृथ्वीराज रासो में जयचंद गौरी आदि मुख्य है।
डॉक्टर श्यामसुंदर दास – ” इस काल के कृतियों का युद्ध वर्णन इतना मार्मिक तथा सजीव हुआ है , कि उनके सामने पीछे के कवियों का अनुप्रात गर्भित किंतु निर्जीव रचनाएं नकल सी जान पड़ती है। ”
श्रृंगार रस का प्रतिपादन –
- इस काल में वीर रस के साथ-साथ श्रृंगार रस का भी सुंदर अंकन हुआ है।
- राजपूत राजा जहां शौर्य एवं वीरता का परिचय देने के साथ-साथ सुंदर राजकुमारियों से विवाह करने के लिए लालायित रहता था।
- इस युग में रचित वीर काव्य ग्रंथ में वर्णित युद्धों का मूल कारण कोई न कोई राजकुमारी ही होती थी।
- ऐसी स्थिति में तत्कालीन साहित्य में श्रृंगार रस का आना अनिवार्य था।
- बीसलदेव रासो में संयोग-वियोग दोनों रूपों का प्रयोग लक्षित हुआ है।
- वीर रस मुख्य रूप से आने के कारण सहायक रासो के रूप में रौद्र रस , विभत्स रस , भयानक रस आदि रसों का प्रयोग भी हुआ है।
कल्पना की बाहुल्य ऐतिहासिकता का अभाव –
- इस काल में कवियों की कल्पना की उड़ान काफी दूर तक होती थी। जहां एक और कवि को राजाश्रय प्रदान था। इस कारण कवियों के लेखन में कल्पना का समावेश होना कोई आश्चर्यजनक ना होगा।
- अपने आश्रयदाता की तुलना अद्भुत , अलौकिक शक्तियों के साथ करना इन कवियों की जरूरत थी।
- कल्पना के द्वारा इन कवियों ने प्रत्येक वस्तु को रंगीन और अद्भुत बनाने का प्रयास किया है।
- साधारण घटना भी चमत्कारपूर्ण बना दिया जाता था।
- वीर रसात्मक ग्रंथों की प्रमाणिकता संदिग्ध है।
- अतः उनमें ऐतिहासिकता का अभाव देखने को मिलता है।
राष्ट्रीय एकता का अभाव –
- आदिकाल में राष्ट्रीयता का अभाव था। और यह संपूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता था।
- उस काल में प्रजा अपने राजा के अधिकार क्षेत्र को ही देश मानते थे , और उसके प्रति अपनी पूरी आस्था और निष्ठा रखते थे। पड़ोसी राज्य को वह शत्रु राष्ट्र समझते थे।
- जिसके कारण बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयता का अभाव देखने को मिला।
- उस काल में छोटे – छोटे राज्यों में भारतवर्ष विभक्त था और राष्ट्रीयता की भावना पूर्णता अभावग्रस्त स्थिति में थी।
आश्रय दाताओं की प्रशंसा –
- आदिकाल के अधिकांश कवि , राजाओं व सामंतों के आश्रय में रहते थे। उनको आश्रय तभी प्राप्त होता था जब वह अपने आश्रय दाताओं की प्रशंसा करते थे।
- रासो ग्रंथ में कवियों ने अपने आश्रय दाताओं की प्रशंसा की है , उनकी धर्मवीर का युद्ध कौशलता , ऐश्वर्य आदि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है।
- ऐसा करना उनके लिए अनिवार्य था क्योंकि वह स्वच्छंद लेखन न करके अपने राजा के लिए लिखा करते थे। जिससे उनका जीविकोपार्जन हुआ करता था।
हिंदी कविता का प्रारंभिक रूप –
- आदिकाल साहित्य की प्रमाणिकता संदिग्ध होते हुए भी उसके महत्व को भुलाया नहीं जा सकता।
- इसका आरंभ कविता से ही हुआ है।
- संस्कृत , प्राकृत और अपभ्रंश में गद्य – पद्य दोनों रूपों में काव्य रचना की प्रधानता थी।
- हिंदी से पहले की सभी भाषाएं जन भाषाएं न हुआ करती थी वह किसी विशिष्ट जाति समुदाय अथवा वर्ग के लिए हुआ करता था।
- वह साहित्यिक रूप जनसामान्य के लिए ना होकर उच्च व श्रेष्ठ कुल के लिए हुआ करता था।
- हिंदी का साहित्य में पदार्पण तब हुआ जब मुद्रण का प्रचार प्रसार हुआ। जिसके कारण एक नया पाठक वर्ग सामने आया। वह वर्ग मध्यम वर्ग था , जिसने हिंदी को अपनाया और उसे साहित्य रूप में स्वीकार किया।
- हिंदी जनसामान्य की भाषा है इसमें जो हम बोलते हैं वही लिखित रूप में भी होता है।
- अतः लोगों को बोलने अथवा समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है यह एक आम भाषा है।
सांस्कृतिक महत्व –
- सांस्कृतिक महत्व की दृष्टि से आदिकाल में रचा गया साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- आदिकालीन साहित्य ने देश – विदेश के लेखकों को भी प्रभावित किया था।
- सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से आदिकालीन साहित्य के अध्ययन से तत्कालीन महान संस्कृति के उत्तल – पुथल का परिचय मिलता है।
- इस साहित्य के आधार पर सांस्कृतिक अध्ययन भी होने लगे हैं।
- उस समय के लेखक अपने राजा के राज्य में मनाए जाने वाले उत्सव को रासो साहित्य में विशेष स्थान दिया करते थे।
- उसके संस्कृति का यथास्थान वर्णन करते थे।
- वस्तुतः वीरगाथा कालीन साहित्य राजस्थान की मौलिक निधि और संपूर्ण भारतवर्ष के लिए गौरव का विषय है।
भाषा और प्रबंध काव्य लेखन ( डिंगल , पिंगल भाषा )
- हिंदी भाषा का विकास भले ही आदिकाल से ना हुआ हो परंतु उसका विकास आरंभिक काल में ही प्रारंभ हो गया था।
- डिंगल भाषा में भले ही अपभ्रंश की झलक मिलती है। मगर मैथिली में विद्यापति ने जो रस बरसाए बरसाए आया है वह स्मरणीय है।
- इन ग्रंथों में डिंगल और पिंगल मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग भी हुआ है।
- मैथिली , ब्रिज और खड़ी बोली में केवल मुक्तक काव्य ही थे।
- किंतु डिंगल के छोटे बड़े अनेक प्रबंध काव्य की रचना होते देखा जा सकता है। जैसे – पृथ्वीराज रासो , परमाल रासो आदि।
अलंकार और छंद प्रयोग –
- वीर काव्य में वीर रस की प्रधानता और वीरोचित वर्णन में अतिशयोक्ति की प्रधानता से अतिशयोक्ति अलंकार का बहुत प्रयोग किया गया है।
- उपमा , रूपक , उत्प्रेक्षा , यमक आदि सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग मिलता है।
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आदिकाल पर इससे अच्छा लेख नहीं हो सकता. आपने एक ही जगह पर सभी महत्वपूर्ण जानकारियां दे दी.
धन्यवाद राहुल जी
दोहा के उदाहरण ज्यादा होता तो बहुत अच्छा होता
हम जल्द से जल्द कोशिश करेंगे और दोहे को जोड़ने की
Yes this great
आदिकाल टॉपिक के ऊपर आपने बहुत अच्छा नोट्स लिखा है
धन्यवाद राहुल जी
यह पोस्ट पढ़ने के बाद मेरा आदिकाल से जुड़ा सभी प्रकार का संसद दूर हो गया है. इस प्रकार के नोट्स अपनी वेबसाइट पर डालने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद आप ऐसे ही अन्य टॉपिक को भी जरूर शामिल करें और उन पर भी लिखें.
आदिकाल की मुख्य प्रवृतियां आपने बहुत अच्छी तरीके से समझई है. आपने रसों का वर्णन भी बहुत अच्छे तरीके से किया है जिससे कि टॉपिक बिल्कुल आसानी से समझ में आ गया.
क्या काल में वीरता परख रचना की गई है काल को रस कल भी कहा जाता है।
आदिकाल में वीरतापरक रचनाएँ हुई थी क्योकि यह काल युद्ध और संघर्ष का था इसलिए इस काल को वीरगाथा काल भी कहा गया।
इतना अच्छे से समझाने के लिए मैं आपको धन्यवाद करना चाहूंगा और मैं चाहूंगा कि आप आदिकाल की अन्य प्रवृत्तियों के बारे में भी जरूर समझाएं। और अन्य काल को भी जरूर प्रस्तुत करें।
आदिकाल पर इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. आप इसी प्रकार से रीतिकाल और भक्ति काल पर भी लेख तैयार करें जिसमें सभी प्रकार की जानकारी उपलब्ध हो परीक्षा के अनुसार.
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