प्रस्तुत लेख में सूरदास जी के जीवन दर्शन से परिचित होंगे उनका जीवन के प्रति ईश्वर के प्रति क्या दृष्टिकोण था। माया किस प्रकार मोक्ष के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। यह जगत क्या है मिथ्या संसार आदि के विषय में सूरदास जी ने विस्तृत रूप से।
इस लेख में विचार प्रस्तुत किए हैं जिन्हें आप विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे।
सूर का दर्शन surdas ka darshan
साहित्य और दर्शन शास्वत सत्य है | दोनों का ही मुलतः सृष्टि के रहस्यों का उद्घाटन करना होता है । साहित्य इन दायित्वों की त्रुटि अनुभूति के रुप में करता है और दर्शन एक विचार के रूप में बुद्धि प्रधान आत्यरेषण दर्शन को जन्म देता है | जो तार्किकता और विश्लेषण में भाव प्रधान प्रेषणीयता होती है | साहित्य तभी अपने उत्कृष्ट कहां को प्राप्त करता है जब उसकी अनुभूति परम सत्य का साक्षात्कार कर लेती है | और दर्शन कब तक वह अपने चिंतन को अनुभूति के रूप में ग्रहण कर लेती है |
सूरदास वस्तुतः दार्शनिक कवि नहीं थे | वह तो संत भक्त थे | उनका लक्ष्य दार्शनिक लक्ष्य की विवेचना नहीं था , परंतु वह एक विशेष संप्रदाय में दीक्षित थे | तथा उसी के सेवा पद्धति को जो उसका आचरण पक्ष है उन्होंने अपनाया था | इसलिए उसके सिद्धांत पक्ष से भी उनका प्रभावित होना उचित ही था | सूरदास जी बल्लभाचार्य जी के शिष्य थे यही कारण है कि बल्लभाचार्य जी द्वारा चलाए गए पुष्टि मार्ग के अनुयाई भी थे | जिसका प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट है उसी संदर्भ में उनका सिद्धांत पक्ष भी सूरदास जी के यहां स्पष्ट दिखाई देता है |
पुष्टि का मार्ग
बल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग श्री भागवत के आधार पर चलाया | उन्होंने जीवात्मा के लिए की गई परमेश्वर की कृपा को पुष्टि मार्ग माना है | यह कृपा ईश्वर जिस पर करता है उसे उसकी भक्ति प्राप्त होती है | सूरदास जी के यहां वल्लभाचार्य जी के सिद्धांतों का प्रभाव तो अवश्य मिलता है | परंतु उन्होंने उनका ज्यों-का-त्यों अनुकरण नहीं किया है जो सूरदास जी को उचित लगा उसे सहज रुप से अपनाया | सूरदास जी के साहित्य में बल्लभाचार्य जी का प्रयुक्त परिभाषित शब्द जैसे आविर्भाव आदि काम नहीं पुष्टि मार्ग का उल्लेख मिलता है | सूरदास जी के साहित्य में दर्शन को समझने के लिए निम्न बातों को समझना आवश्यक है |
ब्रह्म वल्लभ संप्रदाय की भांति सूरदास इष्ट श्री कृष्ण के रुप परब्रम्हा है जिस प्रकार बल्लभ जी ने अपने अनेक ग्रंथों में कृष्ण का नाम हरि लिखा है | और उन्हें ब्रह्मा विष्णु और शिव से ऊपर बताया है | उसी प्रकार सूरदास के यहां भी हरि रूप का स्मरण मिलता है उदाहरण
” शोभा अमित अखंडित आ आत्मा राम ,पूर्ण ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम शब्द विधि पूर्ण काम |”
सूरदास जी ने वल्लभाचार्य की भांति ब्रह्म प्रकृति और पुरुष में अद्वैतता स्थापित की है और पूर्ण पुरुषोत्तम ब्रह्म और श्रीकृष्ण का एकीकरण किया है |
सदा एकरस का अखंडित आदि अनादि अनूप
प्रकृति पुरुष श्रीपति नारायण है अंश गोपाल | | “
पिता माता इनकी नहीं कोई ,
आपुहि करता हूं वही धरता निर्गुण रहते रहत है जोड़ी |
जीव
अपुनंपों आपुन ही विसरयो
जैसे स्वा कोच मंदिर में भऱमी भऱमी मूक परमो |
भगवान की कृपा से जब संसारी जीव माया से छुटकारा पाया जाता है | तब वह मुक्त हो जाता है भ्रम दूर होने पर जीव को अपना ज्ञान हो जाता है | कहीं-कहीं सूर ने ज्ञानी जीवो की ओर भी संकेत किया है जो सदा एकरस रहते हैं |
जीव के लिए भागवत भजन को कल्याणकारी मानते हैं|
जगत और संसार
वल्लभ संप्रदाय में जगत और संसार अलग-अलग है जगत सत्य है और संसार असत्य सूरदास जी ने जगत को गोपाल का अंश माना है। वह जगत को मिथ्या नहीं मानते ,पर संसार का नाम भी नहीं लिया। सूरदास जी संसार को हरि की इच्छा का फल मानते हैं। सूरदास हरिरूप से होकर भी माया कृत हैं। इसलिए वह कहते हैं कि मन को सब स्थानों से खोजकर कृष्ण भगवान में लगाया।
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सूरदास जी की सृष्टि
सूरदास जी की सृष्टि इस प्रकार हे भगवान के हृदय में सृष्टि रचना की फिर माया के द्वारा कालपुरुष के हृदय में किस प्रकार शोभा उत्पन्न हुआ और फिर रज , तम ,और सदगुणों के मेल से प्रकृति के द्वारा सृष्टि का विस्तार हुआ। सूरदास जी संसार को सेंवल के समान और जीव को सेंबल के रूप में मुग्ध शुक के समान बताया है भेद खुलने पर पश्चाताप करना पड़ेगा।
माया
सूरदास जी के यहां माया का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। जो न तो पूर्णता वल्लभाचार्य के मतों का अनुसरण करती है। और ना ही शंकराचार्य जी का। इनकी माया दोनों के मतों का सम्मिश्रण प्रतीत होती है। बल्लभाचार्य जी की माया सत्य तथा ब्रहम दोनों प्रकार की है ,वे स्वयं शक्तिस्वरूपा है और उसके विद्या और अविद्या दो रुप है। शंकराचार्य के मत अविद्या के नाश होने पर जीव और जगह दोनों की सत्ता कर लोभ हो जाता है। परंतु बल्लभाचार्य जी के अनुसार अविद्या का नाश होने पर दोनों की स्थिति रहती है। सूरदास जी की माया अनिष्टकारी है तथा उस का व्यापक रुप है ,माया को मोहिनी भुजंगिनी आदि नाम दिया गया है। काम , क्रोध , लोभ , सब माया के रूप है। सूरदास जी की माया अविद्या और तृष्णा है।
सारी सांसारिक माया और अज्ञान एक ही है सूर ने माया को भगवान का रूप माना है। जिसके कारण यह मिथ्य संसार सत्य सा प्रतीत होता है।
मोक्ष
सूरदास जी ने पुष्टि संप्रदाय के अनुसार ही जीवो की कोटियां की है। इनकी भक्ति स्वतः पूर्ण है। जिसके प्राप्त होने पर कोई इक्षा नहीं रह जाती। इसलिए वह कहते हैं हे भगवान मुझे अपनी भक्ति दो सूरदास जी ने कई स्थानों पर भक्ति का फल बताया है और भक्तों को बैकुंठ की प्राप्ति कराई है। जिसमें भक्त कमल के समान हर्ष-शोक से दूर रहकर जीवन मुक्त हो जाते हैं। मुक्ति का सैद्धांतिक पक्ष इनके यहां नहीं मिलता। भगवान के लीला धाम में पहुंचना ही सालोक मुक्ति है।
ईश्वर के साथ एक ही भाव को प्राप्त हो जाना सारूप्य भक्ति है। बल्लभाचार्य के अनुसार सूर के यहां भी इसका प्रधान है रासलीला में एक का वर्णन है तो भ्रमरगीत में –
जो सुख होता गुण पाल ही गाए सो सुख होत न जब तप कीने कोटिक तीर्थ नहाये।
इस अवस्था को वजननंद में मगन होना कहते हैं। जीव जगत मोक्ष आदि के विषय में सूर के काव्य में मौलिकता ही नहीं निर्भिकता भी दिखाई पड़ती है।
यही कारण है कि बल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होने से पहले ही उनके विनय के पद ही मिलते हैं बाद में ब्रजभूमि के स्पर्श से सुखद अनुभूति होने पर उन्हें जैसे परमधाम की प्राप्ति हो गई। जीवनमुक्त भक्तों को मोक्ष की विभिन्न कोटि में पड़ने से क्या इसलिए सूरसागर में दार्शनिक सिद्धांतों की खोज करना असंभव सा प्रतीत होता है।
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निष्कर्ष –
सूरदास जी ने जीवन के वास्तविक मूल्यों को समझाया था माया किस प्रकार मोक्ष प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करती है, इसके रहस्यों को उद्घाटित किया है। जगत क्या है मनुष्य इस जगत में क्यों आता है अपने कर्मों से वह किस प्रकार अपना जीवन सफल बना सकता है आदि को विस्तार पूर्वक बताया है। निश्चित रूप से सूरदास भक्त कवि थे किंतु उनकी दार्शनिक था अद्वितीय थी।
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