Today we will get knowledge on One of the famous Hindu Festival Guru Purnima in Hindi. परम पवित्र भगवा ध्वज , श्रद्धेय आद्य सरसंघचालक जी , गुरुजी , अध्यक्ष महोदय तथा छोटे-बड़े स्वयंसेवक बंधु। श्री गुरु पूर्णिमा के पावन बेला में आप सभी का हार्दिक अभिनंदन एवं स्वागत है।
गुरु पूर्णिमा – Guru Purnima in Hindi
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में छह प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं , जिसमें से यह एक प्रमुख पर्व है। पूर्व सभी कार्यक्रमों में श्री गुरु पूर्णिमा तथा श्री गुरु दक्षिणा कार्यक्रम एक साथ किया जाता था किंतु इस चुनौती के दौर में दोनों कार्यक्रम अलग-अलग मनाने का प्रयत्न किया गया है।
आज हम श्री गुरु पूर्णिमा कार्यक्रम के निमित्त उपस्थित हुए हैं।
भारतीय जीवन शैली में गुरु का विशेष महत्व है। बालक के प्रथम गुरु के रूप में जहां माता-पिता माने जाते हैं , वहीं उनके संस्कारों और जीवन के मूल्यों को स्थापित करने के लिए पारंपरिक गुरु की आवश्यकता होती है।
वर्तमान समय में गुरु को विभिन्न नामों से जाना जाता है
जैसे – शिक्षक , टीचर , अध्यापक। जबकि गुरु इन सभी से ऊपर होता है समझने का प्रयास ना करें तो –
- जहां सीखना होता है वहां शिक्षक की आवश्यकता होती है।
- जहां टॉक है संवाद है वहां टीचर की आवश्यकता होती है
- जहां अध्ययन किया जाता है वहां अध्यापक की आवश्यकता होती है
जबकि गुरु को विशाल रूप में माना गया है , यही भारतीय परंपरा की खासियत है। गुरु का संबंध द्विपक्षीय नहीं है , जैसे आपने उपरोक्त समझा। गुरु एक अवस्था है , वह तुल्य मान है , वह एक स्थिति है। गुरु का शाब्दिक अर्थ – बड़ा , विशाल , भारी होता है। जिसका सीधा संबंध उस विशाल और सर्वोच्च स्थिति से है , जिस से बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता।
अष्टावक्र का उदाहरण ले तो , उन्होंने अपने जीवन में आठ गुरु माने हैं। यह गुरु कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक स्थिति या अवस्था है। जैसे उनके प्रमुख गुरु थे – कुत्ता , गधा , बगुला।
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उन्होंने ऐसे- ऐसे आठ गुरु बनाए , उन गुरुओं से उन्होंने सीख लिया।
१ कुत्ते से उन्होंने एकाग्रता स्वामी भक्ति आदि को ग्रहण किया।
२ वही गधे से बढ़कर सहनशील कोई और नहीं हो सकता। वह कितने भी मार-पिटाई के बाद भी प्रतिक्रिया नहीं करता। वह उग्र नहीं होता ऐसी अवस्था को उन्होंने स्वीकार किया और उसे गुरु के रूप में ग्रहण किया। वर्तमान समय में गुरु की वह महत्ता लगभग समाप्त होती जा रही है। आज विद्यालय का समय है , विद्यालय में बालक को गुरु चयन करने स्वतंत्रता नहीं होती है। वहां एक परिपाटी होता है , यह विषय वह शिक्षक पढ़ायेगा। दूसरा विषय कोई और शिक्षक पढ़ायेगा। इस प्रकार से पूर्व निर्धारित होता है , ऐसे में गुरु स्वीकार करना और उनके प्रति समर्पित होना , प्रत्येक विद्यार्थी के अनुरूप नहीं है।
श्री गुरु पूर्णिमा की परिकल्पना
आदि गुरु के रूप में वेदव्यास जी का स्थान है , जिन्होंने समाज में ऐसे साहित्य भागवत कथा को उपलब्ध किया। जिससे सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन शैली को जिया जा सकता है। उन्होंने कृष्ण के जीवन को , उनके आदर्शों को उद्घाटित करके समाज में , उच्च आदर्श स्थापित करने का प्रयत्न किया।
आज के दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म दिन भी माना जाता है। श्री गुरु पुर्णिमा उन्हीं को समर्पित आज के दिन की महत्ता है। श्री गुरु पूर्णिमा को आषाढ़ पूर्णिमा , देवशैनी पूर्णिमा , चतुर्मासि , व्यास पूर्णिमा आदि के नामों से भी जाना जाता है।
भारतीय संस्कृति में कोई भी त्यौहार मनाने के पीछे उसकी महत्ता छुपी होती है। पुराने समय में लोग समय , मौसम और आवश्यकता के अनुरूप त्यौहार को मनाया करते थे। हिंदू संस्कृति में पेड़-पौधे , सूर्य , चंद्रमा , जल ,वृक्ष आदि सभी स्रोतों की पूजा की जाती है जो मानव जीवन के लिए आवश्यक है।
श्री गुरु पूर्णिमा कार्यक्रम को मनाने के पीछे भी एक कारण मुख्य रूप से है। पूर्व समय में यातायात के साधन इस मौसम में अवरुद्ध हो जाते थे। संत-महात्मा एक स्थान से दूसरे स्थान यात्रा नहीं कर पाते थे। जिसके कारण उन्हें लगभग चार महीने एक ही जगह रुक कर व्यतीत करना होता था। ऐसे में समाज के लोग इन गुरुओं के पास जाकर उनका सानिध्य पाते , उनके विचारों से परिचय कर पाते। अपने जीवन को जीने की शिक्षा लेते , यह समाज के उत्थान का सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है। जिसमें सामान्य लोग भी गुरु से साक्षात्कार कर सकते थे।
मानव के विषय में कहे तो मानव समाज से सीखता है वह अनुभव से सीखता है। अनुभव मानव को शिक्षा प्रदान करती है , जबकि जीव-जंतुओं में ऐसा नहीं है। जीव-जंतु जन्म से पूर्व ही सीख कर आते हैं। उन्हें चलना-फिरना-बोलना उस प्रकार की आवाज निकलना आदि सभी जन्म से पूर्व ही मिला होता है। जबकि मनुष्य समाज और अनुभव के माध्यम से सीखता है। समाज में जैसा आचरण होता है वह आचरण को मनुष्य ग्रहण करता है। जैसा की अनेकों उदाहरण देखने को मिले बालक जन्म से जंगल में रहा तो वह जंगली व्यवहार करता। जानवरों की आवाज निकालता , उस प्रकार के क्रियाकलाप करता। यह उसके अनुभव और समाज का उस पर प्रभाव होता है।
संघ का गुरु कौन ?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जब पहला गुरु पूजन कार्यक्रम होना तय हुआ , सभी यह विचार कर रहे थे आखिर किसको गुरु माना जाए ? स्वयंसेवकों ने मंत्रणा किया और गुरु के रूप में माननीय हेडगेवार जी को पूजने का मन बना लिया। किंतु हेडगेवार जी यह जानते थे कि उनका शरीर सदैव के लिए नहीं रहेगा। यह संघ अनेकों-अनेक साल तक फलता-फूलता रहेगा , किंतु कोई भी व्यक्ति लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता। इसलिए संघ का गुरु कोई ऐसा होना चाहिए जो , संघ में गुरु के रूप में सदैव , सर्वत्र विद्यमान रहे।
आदि काल से गुरुओं की स्थिति देखी गई तो समझ आया , किस प्रकार गुरु को मारकर उनके विचारों को दबाया जाता रहा है। सिख धर्म में कितने ही गुरु की शहादत देखने को मिली है। उसके उपरांत सिख धर्म के लोग अपने गुरु को पुस्तक के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका गुरु ग्रंथ साहिब ही उनका गुरु है , वह किसी व्यक्ति को गुरु नहीं मानते।
काफी चिंतन मनन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया गया। भगवा ध्वज दो रंगों से मिलकर बना है लाल तथा पीला
- लाल रंग तेज , उत्साह , क्रांति , उग्रता को प्रदर्शित करता है।
- वही पीला रंग सहनशीलता का परिचायक है।
इन दोनों के मिश्रण से भगवा रंग तैयार होता है। जिसमें तेज , क्रांति , उग्रता के साथ-साथ सहनशीलता भी विद्यमान है। जहां जिसकी आवश्यकता होती है उसका प्रयोग किया जाता है। आपने देखा होगा यज्ञ की ज्वाला उसकी शिखा को। ध्यान से देखें तो आभास होता है वह भगवा रंग का है। यह ज्वाला , यह तेज बुराइयों का नाश कर उसके सभी पापों को जलाकर भस्म कर देता है। इस रंग को पवित्र माना गया है। संघ में भगवा ध्वज को स्वीकार करने और व्यक्ति को गुरु के रूप में स्वीकार न करने के पीछे एक कारण और है। व्यक्ति का जीवन नश्वर है , उसके जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते है। उसके निजी जीवन में अनेकों कमियां होती है। उसमें उग्रता , कटुता , दया भाव की कमी , यहां तक कि कई बार व्यक्ति पथभ्रष्ट भी हो जाता है।
प्राचीन समय में विश्वामित्र प्रसिद्ध तपस्वी हुए , उन्होंने जीवन भर तप किया। किंतु मेनका के क्षण भर आकर्षण में उनका संपूर्ण तप व्यर्थ हो गया। साधारण शब्दों में कहें तो वह पथभ्रष्ट हो गए। इस प्रकार सामान्य व्यक्तियों में भी अनेकों अनेक कमियां होती है। उनकी कमियों के कारण संघ बदनाम ना हो , उस पर किसी प्रकार का दाग न लगे , किसी एक व्यक्ति के कृत्य से संघ की छवि खराब ना हो , इस विचार को ध्यान में रखते हुए भगवा ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया।
भगवा ध्वज भारतीय संस्कृति में प्राचीन समय से देखने को मिलता है। यह ध्वज हिंदू धर्म ही नहीं सभी धर्म के लोग होते हैं बौद्ध , जैन आदि धर्म के लोग तथा सहिष्णु लोग इस ध्वज की पूजा करते हैं। हमारे महापुरुष शिवाजी , महाराणा प्रताप , लक्ष्मी बाई यहां तक की हमारी संस्कृति में श्री राम , अर्जुन और श्री कृष्ण आदि के रथ पर भी इस ध्वज को देखा जा सकता है।
संघ में प्रयोग किए जाने वाले भगवा ध्वज की आकृति अखंड भारत को प्रदर्शित करती है। साथ ही साथ वह समर्पण और प्रोत्साहन को भी प्रदर्शित करती है। आप भगवा ध्वज को देखें तो नीचे का भाग बड़ा है , और ऊपर का भाग छोटा। यह प्रदर्शित करता है कि संघ में बड़े लोग सदैव छोटे को उत्साहित करते हैं , उन को प्रोत्साहित करते हैं। स्वयं को नीचे रखते हुए अपने से छोटे को ऊपर उठाने का प्रयत्न करते हैं। अर्थात बड़े अपने से छोटों के लिए नींव का काम करते हैं।
गुरु दक्षिणा
गुरु दक्षिणा की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। गुरु अपने शिष्य को जो शिक्षा देता है , उसके बदले वह दक्षिणा प्राप्त करता है। गुरु दक्षिणा को अर्थ रूप में प्राप्त करता है या फिर वचन रूप में। जो शिक्षा गुरु से प्राप्त की है , वह समाज के लिए लाभकारी हो। इस प्रकार का वचन भी गुरु दक्षिणा के रूप में लिया जाता है। संघ में गुरु दक्षिणा का कार्यक्रम वर्ष में एक बार किया जाता है। यह गुरु दक्षिणा स्वयंसेवक अपने समर्पण भाव से देता है। यह समर्पण मात्र एक दिन का नहीं वरन 365 दिन का होता है। स्वयंसेवक वर्ष भर अपना समर्पण जमा करता है और गुरु दक्षिणा के दिन भगवा ध्वज को समर्पित कर देता है।
समर्पण केवल द्रव्य , पैसे का नहीं उसके भावों का उसके विचारों का तथा उसके त्याग का समर्पण भी गुरु दक्षिणा होता है। जो स्वयंसेवक गरीब , अक्षम होता है , जो सामर्थ्य नहीं होता। वह एक पुष्प के रूप में भी अपना समर्पण भगवा ध्वज को समर्पित करता है। संघ का कार्य बड़े व्यापक तौर पर चलता है , उसको अपने कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। इस धन की आवश्यकता पूर्ति गुरु दक्षिणा में प्राप्त राशि से किया जाता है।
इस राशि के माध्यम से
आदिवासी कल्याण योजना
आपदा सहायता
संस्कृति बचाओ
पूर्णकालिक समर्पित प्रचारक
वनवासी कल्याण
आदि अनेकों-अनेक ऐसे समाज के लिए किया जाता है , जिससे भारत सशक्त और मजबूत हो सके।
गुरु दक्षिणा की राशि का प्रयोग जाति , धर्म , पंथ आदि को देखकर नहीं किया जाता। बल्कि यह सभी के हितों को ध्यान में रखकर किया जाता है। जम्मू कश्मीर में अनेकों ऐसे बच्चे अनाथ हो जाते हैं जिनके माता-पिता आतंकवादी हमले में मारे जाते हैं। उन बच्चों को स्वयंसेवक अपनाता है और उनके शिक्षा और भोजन की व्यवस्था करता है। ऐसा एक वाक्य देखने को मिला , एक आतंकवादी को सेना मार गिराती है। उसके बच्चे की परवरिश के लिए आर एस एस (RSS) को सौंपा जाता है। उस बच्चे से दाखिले के समय प्रश्न किया जाता है। वह भविष्य में क्या बनेगा ? तब वह बताता है वह बड़ा होकर आतंकवादी बनेगा।
कुछ वर्षों बाद जब उसे पुनः पूछा जाता है , तब वह कहता है बड़ा होकर वह सैनिक बनेगा। बड़ा होकर वह आतंकवादियों का नाश कर देगा। उसे पूछा गया एक वर्ष पूर्व तुमने आतंकवादी बनने की बात कही थी। तब उस लड़के ने बताया वह अज्ञानता वश उसने कहा था। वह नहीं जानता था उसके पिता आतंकवादी थे , वह समाज के लिए हानिकारक है , वह निर्दोष लोगों की हत्या करते थे। सैनिकों ने मार कर पुण्य का काम किया। मैं ऐसा ही सैनिक बनूंगा जिससे समाज की रक्षा हो सके।
इस प्रकार समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवर्तन का कार्य करता है। उनके उत्थान का कार्य करता है। किसी भी प्रकार की आपदा में बिना सरकारी मदद हुआ सबसे पहले पहुंच जाता है। यह सभी कार्य गुरु दक्षिणा में प्राप्त राशि से ही संभव हो पाता है। ग्रामीण और वनवासी क्षेत्र में ईसाई मिशनरी तथा अनेकों धर्म के लोग पूंजी का झांसा देकर उनका धर्म परिवर्तन कराते हैं। ऐसे गरीब और असहाय लोगों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शिक्षा और उनके जरूरत की वस्तुओं को पहुंचाता है। उन्हें सम्मान की जिंदगी बनाए रखने का भाव जागृत करता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दान , भिक्षा आदि का भाव रखने वालों से राशि नहीं ली जाती।
यह समर्पण और त्याग की भावना रखने वाले स्वयंसेवकों से ही दिया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी अन्य व्यक्ति से भी इस प्रकार की राशि प्राप्त नहीं। करता वह चंदा या अन्य माध्यम से भी राशि को नहीं लेता। जो व्यक्ति स्वयंसेवक हो और वह वर्ष भर में एक बार गुरु दक्षिणा करता हो उसी स्वयंसेवक से गुरु दक्षिणा की राशि ली जाती है। समर्पण का भाव इस प्रकार का होना चाहिए। जैसे एक स्वयंसेवक रिक्शा चलाते हैं उन्होंने प्रण ले रखा है वह प्रथम सवारी से प्राप्त राशि को समर्पण गुरु दक्षिणा के लिए वर्ष भर में एकत्रित करते हैं। गुरु दक्षिणा के दिन भगवा ध्वज को समर्पित करते हैं। इस प्रकार के समर्पण की भावना यही गुरु दक्षिणा में स्वीकार की जाती है।
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संघ की प्रार्थना। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे।आरएसएस।
निष्कर्ष
वैश्विक महामारी के कारण आज हमें इस कार्यक्रम को ऑनलाइन करना पड़ रहा है। यह हमारे लगन को प्रदर्शित करने का सशक्त माध्यम है। आज से पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई कार्यक्रम ऑनलाइन नहीं होता था। किंतु इस चुनौती के दौर में हमने उन सभी माध्यमों को भी अपना कर अपने कार्य को निरंतर जारी रखा। इस समय विद्यार्थी जीवन में भी अनेकों चुनौतियां देखने को मिल रही है।
अभावग्रस्त विद्यार्थी ऑनलाइन शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। इस चुनौती को स्वयंसेवकों ने दूर करने का भरसक प्रयास किया। अपने पास उपस्थित , पुराने साल की पुस्तकों को एकत्रित करके , उन सभी अभावग्रस्त विद्यार्थियों तथा समाज के लोगों तक पहुंचाने का प्रयत्न किया जिन्हें नितांत आवश्यकता थी।
पैर में चक्कर , मुंह में शक्कर
दिल में आग और शीश पर फाग। ।
स्वयंसेवकों में यह गुण अवश्य देखने को मिलता है। क्योंकि वह अपने कार्य के प्रति इतने संलग्न रहते हैं समर्पित होते हैं कि वह शांत नहीं बैठते। उनके वाणी में मधुरता होती है , मिठास होती है , जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति प्रभावित होता है। उनके दिल में किसी भी कार्य को करने के प्रति एक लगन रहती है , एक आग रहती है। अपने शीश पर भगवा वस्त्र धारण करते हैं। अर्थात तेज को धारण करते हैं , उस दिव्य विचार को धारण करते हैं जो उन्हें सर्वश्रेष्ठ बनाता है।
गुरु पूर्णिमा पर लिखी इस पोस्ट का समापन यही होता है।
काफी प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक लेख लिखा है आपने. मुझे पढ़कर बहुत कुछ समझ में आया.
भारत माता कि जय
आपके बहुत सुन्दर लेखन से ज्ञान की वृद्धि हुई, भारत माता की जय
बहोत सतिक विश्लेषण किया हैं| यदी यह भाव सभी संस्थानो मे आये तो भारत जलदी ही विश्र्वगुरू होगा
आपकी बात बिलकुल सही है