शिक्षा का उद्देश्य एवं आदर्श | shiksha ka uddeshy

वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ अत्यधिक व्यापक था। वह शिक्षा जीवन से संबंधित थी और व्यक्ति को सभ्य तथा उन्नत बनाने में सहायक मानी जाती थी। विद्या के अभाव में व्यक्ति केवल पशु मात्र ही रह जाता है।

शिक्षा के उद्देश्य और आदर्श महान थे।

धार्मिकता के अतिरिक्त चरित्र का निर्माण , व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नागरिक और सामाजिक कर्तव्यों पर बल सामाजिक सुख और कौशल की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार।

  • समय के साथ-साथ शिक्षा  के उद्देश्यों में भी परिवर्तन होता रहा वैदिक काल में जहां शिक्षा अध्यात्म , संगीत, वेद उपनिषद, राजनीति, रणकौशल, आदि पर आधारित हुआ करती थी।
  • मध्यकाल में शिक्षा का उद्देश्य धर्म के प्रचार – प्रसार के लिए हो गया।
  • आधुनिक काल में शिक्षा का उद्देश्य पुनः बालक के सर्वांगीण विकास पर आधारित हो गया।

इस शिक्षा में बालक के मस्तिष्क के विकास की ही नहीं अपितु उसके शारीरिक विकास पर भी ध्यान दिया जाता है। आधुनिक पाठ्यक्रम में बालक के हर एक रूचि को ध्यान में रखा जाता है अथवा उसके सर्वांगीण विकास पर विशेष बल दिया जाता है।

शिक्षा का उद्देश्य – वैदिक कालीन मध्यकालीन आधुनिक शिक्षा

 

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में एक स्थल पर स्पष्ट रूप से इस तथ्य का उल्लेख किया है कि

” भारतीय संस्कृति का उद्देश्य ज्ञान की खोज है इसी दृष्टि से यही प्राचीन भारतीयों ने शिक्षा प्रणाली का विकास किया था। भारतीयों के लिए ज्ञान शब्द का कोई सीमित अर्थ नहीं था। शिक्षा के द्वारा वे केवल सांसारिक ज्ञान की ही नहीं अपितु परलोक संबंधी ज्ञान को भी प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। ”

 

 

भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में चार लक्ष्य माने गए हैं जिन्हें पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती है – धर्म  , अर्थ  , काम , मोक्ष।  इन चारों में से मोक्ष सबसे अधिक पवित्र एवं महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का चरम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः शिक्षा ही मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन माना गया है।

डॉ राधा मुकुंद मुखर्जी के अनुसार

” प्राचीन काल में शिक्षा मोक्ष प्राप्ति का आत्मज्ञान का साधन थी। इस प्रकार शिक्षा जीवन के चरम उद्देश्य प्राप्त करने के लिए माध्यम मानी जाती थी “।

महात्मा गांधी  –

” शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर , मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।”

स्वामी विवेकानंद – 

”  मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ”

जॉन ड्यूवी  –

” शिक्षा व्यक्ति के उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रख कर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सकें। ”

हरबर्ट स्पेंसर  –

” शिक्षा का अर्थ अंत शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है। ”

पेस्टालॉजी  –

” शिक्षा मानव की संपूर्ण शक्तियों का प्राकृतिक प्रगतिशील और सामंजस्यपूर्ण विकास है। ”

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1964 – 66  –

” शिक्षा राष्ट्र के आर्थिक , सामाजिक विकास का शक्तिशाली साधन है। शिक्षा राष्ट्रीय संपन्नता एवं राष्ट्र कल्याण की कुंजी है। ”

डॉ ए एस अल्तेकर के अनुसार

” ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना चरित्र निर्माण व्यक्ति का विकास नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श थे।”

 

शिक्षा के कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य निम्नलिखित है

१ ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता Devotion to God and Religiousness-

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए वह अपने जीवन जीने की शैली को किसी भी रूप में अपना सकता है। इसके लिए प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्रता है।

वह अपने ईश्वर की आराधना कर सकता है।

पूजा पाठ कर सकता है अपने धर्म को अपने अनुसार चुन सकता है।

प्रत्येक मानव किसी न किसी धर्म से जुड़ा होता है और उसके प्रति अपनी आस्था व्यक्त करता है।

डॉ आर के मुखर्जी के अनुसार

” भारत में विद्या तथा ज्ञान की खोज केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए ही नहीं अपितु उसका विकास धर्म के एक आवश्यक अंग के रूप में हुआ। वह धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्ति या आत्म ज्ञान का एक क्रमिक प्रयास माने गए अतः इस प्रकार जीवन के चरम उद्देश्य प्राप्ति का माध्यम बन गए यह उद्देश्य था मोक्ष या मुक्ति। ”

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा के अंतर्गत शिक्षा के विभिन्न व्रतों का पालन नियमित संध्या एवं धार्मिक उत्सवों का आयोजन किया जाता था। इस समय तक आर्य आर्थिक विचारधारा के थे वे ब्रह्मा की सत्ता में विश्वास करते थे। गुरु अपने शिष्यों को प्रार्थना करना , यज्ञ करना , वेद मंत्रों का उच्चारण करना आदि नियम विधिवत बताते थे।

इस प्रकार की धार्मिक शिक्षा का उद्देश्य था।

विद्यार्थियों में दया ,

क्षमा ,

त्याग ,

सहिष्णुता ,

उदारता एवं परोपकार की भावना का समावेश करना।

वैदिक काल की शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी। 

गुरु अपने शिष्य को उपनयन संस्कार के माध्यम से अपने शरण में लेते थे और गुरुकुल में विद्यार्थियों को रखकर वह उनकी उचित विद्या का प्रबंध किया जाता था।

गुरुकुल में विद्या का विषय ब्रह्म ज्ञान ,

वेद ,

उपनिषद ,

संगीत ,

राजनीति ,

अस्त्र- शस्त्र आदि की शिक्षा व्यवहारिक रूप से दी जाती थी।

शिष्य अपने गुरु का सानिध्य पाकर उच्च शिक्षा को ग्रहण करता था। इतना ही नहीं वैदिक काल में शिक्षा को मोक्ष का साधन माना जाता था।  अपितु हर एक व्यक्ति शिक्षा को प्राप्त करना चाहता था।

वैदिक काल में

शिक्षा धर्म से जुड़ी हुई थी विद्यार्थियों को धर्म की शिक्षा विशेष रूप से दी जाती थी.

जिसके माध्यम से विद्यार्थी अपने धर्म , ईश्वर की भक्ति आदि शिक्षा के माध्यम से कर सकता था।

 

२ चरित्र निर्माण

शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना ही है। शिक्षा प्राप्ति के उपरांत विद्यार्थी के चरित्र में बदलाव शिक्षा प्राप्ति की सफलता है। शिक्षा के बिना मनुष्य पशु के समान माना जाता है। शिक्षा की प्राप्ति के उपरांत विद्यार्थी एक चिंतक की भांति स्वयं अथवा परिवार और समाज के विषय में सोचता है।

शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो मनुष्य मनुष्य में भिन्नता उत्पन्न करती है।

  • एक शिक्षित मनुष्य हमेशा अपने समाज की कुशलता के विषय में सोचेगा जबकि शिक्षा विहीन मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति में व्यस्त रहता है। वैदिक शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य था आदर्श चरित्र का निर्माण था। शिक्षा तभी सार्थक मानी जाती थी जब उसके द्वारा विद्यार्थियों की विवेक बुद्धि बड़े और जीवन के प्रत्येक कार्य क्षेत्र में उन्हें सफलता मिले।
  • सच्चरित्रता को अत्यधिक महत्व दिया जाता था शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य उदात  और महान चरित्र का निर्माण करना था। एक अन्य स्थान पर मनुष्य प्रति में पुनः उल्लेख मिलता है केवल सावित्री मंत्र को ही मानने वाला भी  यदि चरित्रवान है तो अच्छा है , किंतु अपने जीवन खान-पान और स्वभाव में अनियंत्रित विप्र तीन वेदों का ज्ञाता होते हुए भी अच्छा नहीं माना जाएगा।

विद्यार्थियों को गुरुकुल में शिक्षा का मंत्र दिया जाता था।

गुरुकुल में रहते-रहते विद्यार्थी गुरुकुल के समाज से विशेष प्रकार से जुड़ जाता था।

वह अपने निजी स्वार्थ को भूलकर वहां के समाज के विषय में सोचता और उसके वातावरण में रम जाता।  उसमें कार्य क्षमता का अद्भुत विकास होता , विद्यार्थी स्वयं भिक्षा मांगकर अपना और अपने गुरुओं के भोजन की व्यवस्था करते स्वयं साफ-सफाई का ध्यान रखते अथवा शिक्षा के विभिन्न आयामों को ग्रहण करते उनसे परिचित होते।

शिक्षा के द्वारा मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति करता था अतः शिक्षा मानव को महान बनाती है।

 

३ व्यक्तित्व का विकास

शिक्षा एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में भेद उत्त्पन्न करती है।  एक शिक्षित मनुष्य अपने नहीं अथवा समाज के हित की सोचता है।  व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है। शिक्षा द्वारा शारीरिक और बौद्धिक योग्यता का समान रूप से विकास किया जाता है। मानसिक शक्तियों के विकास के लिए स्वस्थ शरीर का अत्यधिक महत्व है।

माना जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है।

विद्यार्थी में आत्म सम्मान की भावना को बढ़ावा दिया जाता था.

उनमें इन्द्रियों को वश में करना , आत्मसंयम और आत्मविश्वास की भावना को अधिक से अधिक बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता था।

गुरुकुल में इस प्रकार के प्रयोग किए जाते थे कि विद्यार्थी में आत्मविश्वास , आत्मबल का विकास हो सके।

  • किसी भी कठिन परिस्थिति में वह व्याकुल ना हो और संयम अथवा धैर्य से उस परिस्थिति का सामना कर सके। विद्यार्थी न्याय और विवेक बुद्धि द्वारा शिक्षा का प्रयोग कर सकें विद्यार्थी के आत्मसम्मान को बढ़ाने के लिए शिक्षा के माध्यम से उसे इस तथ्य की स्पष्ट जानकारी दे दी जाती थी कि वह देश की संस्कृति का रक्षक है।
  • आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने के समय ही अर्थात उपनयन संस्कार के समय ही उसे बता दिया जाता था कि उसके सभी अच्छे कर्मों में दिव्य शक्तियां उसकी सहायता करेगी , वह सदैव निर्भीक रूप से कार्य कर सकता है।
  • शिक्षा प्राप्ति के बाद विद्यार्थी में वह दिव्य अनुभूति होती है जो साधु अथवा महात्मा में देखने को मिलती है। एक शिक्षित मनुष्य के मस्तिष्क पर हमेशा तेज रहता है। कठिन समय में भी शिक्षित मनुष्य अपना धैर्य नहीं होता वह संयम के साथ कठिन परिस्थितियों का सामना करता है और उसका निवारण करता है।

यही भेद अन्य मनुष्य से शिक्षा मनुष्य को अलग करता है।

 

४ नागरिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन

शिक्षा मानव को सौहार्द और भाई चारे को बढ़ावा देने का एक माध्यम बना देती है।

एक शिक्षित मनुष्य अपने देश के प्रति निष्ठावान होता है वह अपने देश में बने कर्तव्य अथवा नियमों का पालन बिना किसी विरोध के ससम्मान करता है।

अध्ययन काल में ही विद्यार्थी को उसके नागरिक और सामाजिक कर्तव्यों से अवगत कराया जाता है , उसे भावी राष्ट्र का निर्माता समझा जाता है। अतः स्वार्थ परकता  से दूर रहने की शिक्षा दी जाती है।

परोपकार को ही परम धर्म बताया गया है।

गुरुकुल में गुरु अपने शिष्य को राजनीति की शिक्षा इसलिए दिया करते थे कि वह भावी राष्ट्र का निर्माता अथवा नीतिवान बन सके अपने राष्ट्र के नीति से अवगत हो सके समय पड़ने पर अपने राष्ट्र में नीति निर्माण का कार्य कर सकें। अपने राजा अथवा अपने देश के हित का सम्मान रखते हुए उनके कर्तव्यों का पालन करें और राष्ट्रहित में अपना योगदान दें।

 

५ सामाजिक सुख और कौशल की उन्नति

मनुष्य सामाजिक प्राणी है वह समाज में ही रहता है। समाज विहीन मानव पशु के समान माना जाता है। मानव जब समाज में रहता है तो उसे अपने स्वयम के स्वार्थ को त्याग कर समाज के कल्याण अथवा उसकी उन्नति का ध्यान रखना शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य हो जाता है।

शिक्षा का उद्देश्य व्यवहारिक क्षेत्र में कुशल नागरिकों का निर्माण करना होता है ,

प्राचीन भारतीय समाज में श्रम विभाजन के सिद्धांत पर निर्मित था।

अतः प्रत्येक विद्यार्थी को इस दृष्टिकोण से शिक्षा दी जाती थी कि वह भावी जीवन में समाज के इस प्रकार के ढांचे में पूरी तरह अपने लिए स्थान बना सके। इस प्रकार की व्यवहारिक शिक्षा द्वारा यह अध्ययन के उपरांत व्यवहारिक जीवन यापन में कठिनता अनुभव नहीं करता था। पूरी तरह सामाजिक सुख का उपयोग करता था साथ ही व्यवहारिक क्षेत्र में शिक्षित होने के कारण अपने अध्यवसाय में भी कुशलता  से काम कर पाता था।

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में यह परिवर्तन किया गया है कि –

यदि कोई विद्यार्थी कौशल की शिक्षा लेना चाहता है तो वह अपने कौशल का विकास कर सकता है।

 

वह व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर सकता है , विभिन्न स्तरों पर इस शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

विद्यार्थी के व्यवस्थाएं रूचि के अनुसार उसके कौशल की उन्नति की जा सकती है।

प्राचीन काल में वंशानुगत व्यवस्थाएं में कुशलता प्राप्त करना पड़ता था.

कभी-कभी अपनी रुचि के अनुसार वंशानुगत व्यवसाय को छोड़कर किसी अन्य व्यवसाय में प्रशिक्षित होना पड़ता था। ऋग्वेद काल में इच्छा अनुसार व्यवसाय क्षेत्र के चयन की स्वतंत्रता थी किंतु उत्तर वैदिक काल में यह स्वतंत्रता नहीं रही और पूर्णरूपेण वंशानुगत ही हो गए।

 

६ राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार

मध्य काल तक एक व्यक्ति अपने राजा के राज्य को ही राष्ट्र मानता था और उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता था। किंतु आधुनिक काल में एक राष्ट्र का उदाहरण बदल गया है। अब किसी एक राज्य के प्रति व्यक्ति अपनी निष्ठा नहीं प्रकट करता अथवा राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता है , और उसके कर्तव्य उसके नियमों का पालन करता है।

उसका संरक्षण उसके संस्कृति को अपनाता है और उसके विकास उन्नति में अपनी भागीदारी सुनियोजित करता है।

मध्य काल तक एक व्यक्ति अपने राजा अथवा आश्रितों के प्रति ही अपनी निष्ठा व्यक्त करता था।

शिक्षा के उद्देश्य से उसके विचारों में परिवर्तन आया और अपने राष्ट्र के प्रति सोच में बदलाव किया। शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार भी है। विद्यार्थी देश की प्राचीन संस्कृति का संरक्षण करता था तथा परिस्थिति के अनुसार अपनी न्याय एवं बुद्धि बल से उसमें परिवर्धन भी करता था।

शिक्षा के द्वारा वर्षों तक देश की चेतना का अस्तित्व बना रहा वैदिक काल से लेकर निरंतर शिक्षित वर्ग अपने ज्ञान द्वारा भावी पीढ़ी को शिक्षित करता था। इस प्रकार शास्त्रों वर्षों तक वेदों के और लिखित न रहने पर भी उसके अस्तित्व अक्षय ना रह सका यह लिखित ग्रंथ पिता पुत्र और शिष्य गुरु परंपरा द्वारा मौखिक रूप से जीवित रह सके तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्मरण शक्ति द्वारा ही हस्तांतरित होते रहे।

 

निष्कर्ष – 

समग्रतः  हम कह सकते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य वर्तमान समय में शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास पर केंद्रित है। आज के शिक्षाविद मानते हैं कि एक शिक्षार्थी के अंतर्निहित शक्तियों को उजागर करना उसको बाहर निकालना है  और शिक्षार्थी सर्वांगीण अर्थात मानसिक,  शारीरिक,  भौतिक आदि सभी प्रकार से शिक्षार्थी को संपन्न सशक्त बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य है।

शिक्षा का उद्देश्य समय के साथ – साथ बदलता रहा है।

आदिकाल में शिक्षा वंशानुक्रम पर आधारित था। 

अर्थात जो बालक ब्राह्मण है वह ब्राह्मण और जो छत्रिय है वह छत्रिय की शिक्षा लिया करते थे।

मध्यकाल में शिक्षा का उद्देश्य धर्म के प्रचार – प्रसार का केंद्र हो गया था।

आधुनिक काल में शिक्षा का उद्देश्य बालक को केंद्र मानकर उसका सर्वांगीण विकास करना ही एकमात्र उद्देश्य है।

 

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