रामधारी सिंह दिनकर की परशुराम की प्रतीक्षा सामाजिक विषय पर आधारित है। जिसमें उन्होंने जनता को कुछ महत्वपूर्ण संदेश दिया है। इस लेख में हम उन उद्देश्यों को समझने का प्रयास करेंगे। यह लेख आप अपने ज्ञान की वृद्धि तथा कॉलेज की परीक्षाओं के लिए पढ़ सकते हैं।
प्रश्न – परशुराम की प्रतीक्षा के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहते हैं?
परशुराम की प्रतीक्षा दिनकर जी की सुप्रसिद्ध काव्यकृति है। कवि का स्वाभिमान सौभाग्य पौरुष से मिलकर नए भावी व्यक्ति की प्रतीक्षा में रत दिखाई देता है। सतत् जागरूकता परिस्थितियों के संदर्भ में समकालीनता एवं व्यवहारिक चिंतन एक कवि के लिए आवश्यक है। प्रस्तुत रचना भारत-चीन युद्ध के पश्चात लिखी गई थी। कवि कहता है कि हमें अपने नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए अपने राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा के लिए सतत जागरुक रहना चाहिए। युद्धभूमि में शत्रु का विनाश करने के लिए हिंसा अनुचित नहीं है।
प्रस्तुत रचना की भूमिका में कवि ने स्वयं स्वीकार किया है दिनकर ने जिस समय लिखना शुरू किया उस समय हमारे देश में ब्रिटिश की गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्वाधीनता संग्राम का संघर्ष जोरों पर था। इससे संपूर्ण देश का मानस आंदोलित हो चुका था। आंदोलन की वापसी गांधी इरविन समझौता , मेरठ षड्यंत्र और भगत सिंह एवं उनके साथियों की फांसी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना और शिक्षित लोगों के बीच समन्वय वादी विचारधारा खूब उमड़ रही थी।
इसी समय किसान सभा की स्थापना और उसके समानांतर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना भी हो चुकी थी । अंतरराष्ट्रीय स्तर परबोल्शेविक क्रांति की घटना के साथ-साथ समाजवादी सोवियत संघ नई आशावादी किरण लेकर आया था।
किसी आलोचक ने दिनकर जी और उनके युग में विषय इस प्रकार लिखा है।
माखनलाल और नवीन के काव्य का अनुशीलन करने से जो तथ्य उभरकर सामने आता है वह यह है कि उसकी मस्ती उनकी उत्सर्ग भावना की देन है वह जो की स्वाधीनता आंदोलन के उस दौर के कवि थे जो धीरे-धीरे काफी उग्र हो चुका था। इसलिए उन में पहले के राष्ट्रीय तत्ववादी कवियों की तुलना में एक बलिदानी का भाव है, यही भाव दिनकर में आकर बहुत बढ़ जाता है। सन 1962 के चीनी आक्रमण के परिणाम स्वरुप भारत को मिली पराजय से शुद्ध होकर कवी के मन में जो तिलमिलाहट पैदा हुई उसकी उद्बोधन आत्मक अभिव्यंजना ही परशुराम की प्रतीक्षा है।
प्रस्तुत काव्य में कवि सूरदास एवं अग्नि धर्म को ही वरेण्य बताते हैं। जीवन का प्रत्येक परिस्थितियों में क्रांति का राग अलापने वाला कवि दिनकर इस रचना में परशुराम की प्रतीक्षा करता है। कविता सूर धर्म की यहां परशुराम धर्म में बदल गया है। एक समय था जब उसे अर्जुन एवं भीम जैसे वीरों की आवश्यकता थी। किंतु आज उसे लगता है कि देश पर जो संकटकाल मंडरा रहा है। उसके घने बादलों में छिपे को परशुराम को कुठार ही बाहर ला सकता है। इसलिए कवि ने प्रस्तुत कविता में परशुराम धर्म अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। कवि की सोच उसके विश्वास का साथ देती हुई यही निष्कर्ष निकालती है।
वे पीयें शीत तुम आतम घाम पियो रे ।
वे जपें नाम तुम बनकर राम जी ओ रे।।
20 अक्टूबर 1962 को भारत पर चीन ने आक्रमण कर दिया इससे पूर्व चीन भारत से मित्रता का स्वांग करता रहा। यह आक्रमण भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमांत क्षेत्र लद्दाख पर किया और दूसरी तरफ उत्तरी पूर्वी सीमांत क्षेत्र नेफा पर तैयारी ना होने के कारण भारत हारा। चीन की इस धोखाधड़ी से भारत तिलमिला उठा। देश में जागृति की लहर दौड़ ई जनसामान्य के में आक्रोश ओबरा और साहित्यकारों के मन मस्तिष्क में एक प्रतिक्रिया ने जन्म लिया।
कितने ही कवियों की लेखनी ही राष्ट्रीय कविताएं लिखी गई दिनकर जी द्वारा लिखित काव्य परशुराम की प्रतीक्षा अभी उपर्युक्त पराजय की प्रतिक्रिया का ही परिणाम था। नेफा युद्ध के प्रसंग में भगवान परशुराम का नाम अत्यंत सन चीनी है जब परशुराम पर मात्र हत्या का पाप चढ़ाते हुए उस से मुक्ति पाने के लिए सभी तीर्थों में घूमते फिरते परंतु कहीं भी परसों पर भी वजन नहीं खुली यानी उनके मन में ताप का भाव दूर नहीं हुआ। ब्रह्मा कुंड में डुबकी लगाते ही परसा उनके हाथ से छूट गया अर्थात उनका मन पाप मुक्त हो गया।
नेफा क्षेत्र उसी ब्रह्मा कुंड से निकलती धारा का स्थल है जहां ब्रम्हापुत्र बहता है वही परशुराम कुंड है जो हिंदुओं का तीर्थ स्थान है ब्रम्हपुत्र का नाम रोहित भी है।
कवि कहता है कि भारत ने अब अहिंसा के भाव को तिलांजलि देकर पुनः शस्त्र बल का आश्रय लिया है।
तांडवी तेज फिर से पुकार उठा है ।
लोहित मे था जो गिरा कुठार उठा है।।
प्रस्तुत कविता की पौराणिक पृष्ठभूमि में भी है। इसकी पौराणिक पृष्ठभूमि ही परशुराम धर्म की अनियमिता है। कवि द्वारा परशुराम धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य यही है कि चीन द्वारा आक्रांत एवं पद आक्रांत भी है यही इस कविता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। प्रस्तुत कविता की पौराणिक पृष्ठभूमि भी है इसकी पुरानी पृष्ठभूमि ही परशुराम धर्म की अनियमिता है। कवि द्वारा परशुराम धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य यही है कि चीन द्वारा आक्रांत एवं पद आक्रांत नेफा क्षेत्र से परशुराम का ऐतिहासिक संबंध रहा है।
प्रस्तुत रचना में कवि ने शस्त्र प्रयोग को अस्वीकार्य मांगने तथा शारीरिक बल प्रयोग न करने की शिक्षा देने वाला तथाकथित महापुरुषों पर व्यंग्य किया है।
गीता में जो त्रिपिटक निकाय पढ़ते हैं
तलवार गला कर जो तकली गढती है ।
शीतल करते हैं जो अतल प्रबुद्ध प्रजा का
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का।।
परशुराम धर्म भारत की जनता का धर्म है परशुराम भारत की जागरूक जनता के प्रतीक थे।
कवि द्वारा परशुराम धर्म की व्याख्या किए जाने के दो कारण है पहला कारण तो यह है कि प्रशासक वर्ग ने जनता के प्रतिनिधि बन कर भी उसकी उपेक्षा की है फलता जनता लगातार अभाव एवं शोषण की चक्की में पिस ती हुई साफ भोग रही है।
दूसरा कारण यह है कि आज सभी अपने अपने स्वार्थ भाव के पोषण में लगे हैं वस्तुतः आज आवश्यकता है एक ऐसे धर्म की जो सर्वजन हितकारी और लोगों की उक्त हो परशुराम धर्म वह धर्म है जो पुरुष मई चेतना का वाहक है अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आज के युग का एकमात्र धर्म यही है।
परशुराम धर्म एक दाहक धर्म अवश्य है पर उसमें प्रासंगिक औचित्य भी है, समय की मांग है भी है। यह समय की आवाज को न सुनना अर्थात बेहरा होने की गवाही तो है ही कायरता एवं नपुंसकता का स्वीकारे भी है।
प्रस्तुत रचना में पूर्ण सत्ताधारियों को कोसा गया है जिनकी गलत नीतियों के कारण भारत को चीन के आक्रमण का शिकार होना पड़ा जिनके गलत आदेशों के परिणाम स्वरुप असंख्य सैनिकों को मृत्यु की घाटी में कूदना पड़ा।
घात है जो देवता सदृश्य दिखता है।
लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्या है
समझो उसने ही हमें यहां मारा है।।
कवि ने तिब्बत पर चीन आक्रमण का विरोध ना करने तथा चुप रहने के लिए तत्काल भारतीय सत्ताधारियों की कड़ी भर्त्सना की है।
उस कुटिल राज्यतंत्री कदर्य को धिक है
वह मूक सत्य हन्ता कम नहीं बधिक है।।
कवि के परशुराम धर्म के वर्ण के लिए अनेक भागों तथ्यों एवं स्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक है इस धर्म के निर्वाहक के लिए आवश्यक तत्व है।
- स्वतंत्रता की कामना
- वीर भाव
- जागृति
- निवृत्ति मूलक मार्ग का परित्याग
- वर्ग वैमनस्य का विरोध
- भविष्य के प्रति सतर्क तथा आस्था मुल्क दृष्टि
- परशुराम धर्म की महत्ता और औचित्य जीवन को
- जीवन मानकर सिर ऊंचा कर जीवित करना।
1 स्वतंत्रता की कमान
परशुराम धर्म का प्रथम तत्व स्वतंत्रता की कामना है इसके बिना इस कामना की पूर्ति नहीं की जा सकती यह भावना वह भावना है जो आंतरिक है और निरंतर चलने वाली भावना है।
कवि कहता है कि स्वतंत्रता की कामना को पुष्पित होने देने के लिए स्वाभिमान पूर्वक जीना तो आवश्यक है ही वीरता के साथ साथ हथियारों से युक्त रहना भी जरुरी है
पहरे पर चारों और सतर्क रहो रे
धर धनुष बाण उद्यत दिन-रात जगो रे।।
2 वीर भाव
परशुराम धर्म के निर्वाह के लिए दूसरा प्रमुख धर्म है वीर ओजस्वी भाव का। पुरुष वीरता एवं शक्ति के बलबूते ही वर्तमान जीवन में व्याप्त संकट डाला जा सकता है
स्वर में पावक यदि नहीं वृथा बंधन है
वीरता नहीं तो सभी विनय क्रंदन है।।
3 जागृति
परशुराम धर्म के निर्वाह के लिए तीसरा प्रमुख तत्व जागृति है जिस व्यक्ति में जागृति की भावना नहीं होती है वह सफलता नहीं पा सकती।
4 निवृत्तिमूलक मार्ग का परित्याग
परशुराम धर्म की स्थापना के लिए निवृत्ति मूलक मार्ग के परित्याग की आवश्यकता है जहां निवृत्ति है वही कायरता और पराजय है जो जातियां विनय एवं और क्रोध में ही विजय का बीज खोजती है
5 वर्ग वैमनस्य का विरोध
कवि ने वर्ग वैमनस्य का विरोध किया है और कहा है कि परशुराम धर्म के ग्रहण से ही इस असमानता को समाप्त किया जा सकता है
6 भविष्य के प्रति सतर्क
दिनकर जी आशावादी कवि है इसलिए वह भविष्य के प्रति सतत जागरूक रहते हैं
7 परशुराम धर्म की महत्ता
परशुराम धर्म के अनुसार प्रज्वलित चेतना ही एकमात्र वास्तविकता है अग्नि के समान दाहक धर्म ही सर्वोपरि धर्म है अग्नि धर्म शक्ति का आधारित है परिचायक है
8 जीवन को जीवन मानकर सिर ऊंचा कर जीवित रहना
कवि परशुराम धर्म के आधार पर यह प्रस्थापित करता है कि जीवन को मानकर जीवित रहना इसलिए चाहिए क्योंकि जीवन का उद्देश्य कीर्ति दान धर्म सुख और ज्ञान अर्जन मात्र नहीं है इसका उद्देश्य इन सब से आगे बढ़कर है
परशुराम ने छात्र तेज को तभी अपनाया था जब उसके हम पर चोट पहुंचती है अतः सभी देशवासियों को परशुराम के चरित्र से प्रेरणा लेने को कहते हैं कवि के अनुसार चीन की तरह अन्य राष्ट्र अभी भारत पर आक्रमण कर सकते हैं अतः अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए हमें जागरुक रहना चाहिए
पहरे पर चारों ओर सतर्क रहो रे
धर धनुष-बाण उद्यत दिन-रात जागो रे।।
निष्कर्ष
समग्रतः हम कह सकते हैं कि परशुराम की प्रतीक्षा में क्रांति का संदेश है। अग्नि धर्म की महत्ता का आकलन है, तथा पुरुष एवं दर्प का स्पष्ट स्वर है।
जिन परिस्थितियों में हम इस धर्म को अपनाने की बात कह रहे हैं, वही एकमात्र धर्म है नेताओं परशुराम धर्म का औचित्य भी है और महत्व भी। स्वतंत्रता की भावना जाति की लगन है तथा व्यक्ति की धुन है यह बाहर से छुपा हुआ गुण नहीं है, बल्कि मनुष्य के भीतर का ही एक गुण है जो जाति अत्याचारी के सामने घुटने नहीं टेकती और अन्याय के सामने घुटने नहीं टेके और अन्याय के सामने नहीं झुकती है तथा वृक्ष के आधार को सहन कर जाती है वही जाती स्वतंत्र रहती है।
कवि देश के युवकों से कहते हैं कि तुम वीरता की भावना को मत छोड़ो और जो तुम पर आन पड़े उसे चुपचाप स्वयं ही सहन करो जब भाग्य व्यक्ति के अहम पर चोट करता है तो अहम् से भी बढ़कर भावना उसमें जन्म लेती है।
ठीक इसी प्रकार जब मनुष्य के बल पर भीषण विपत्ति आती है तो व्यक्ति और अधिक कष्ट सहन करने योग्य बन जाता है। इसलिए हे युवक ठोकरें खाकर और अधिक बढ़ को और चिंगारी की बजाए गोला बन कर भड़क उठे यदि तुम्हारी वाणी में आज नहीं है तो तुम्हारी वंदना व्यर्थ है।
कवि ने महात्मा गांधी के अहिंसा एवं क्षमा के सिद्धांत का खंडन करते हुए लिखा है क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनती सरल हो।
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अति उत्तम। दिनकर जी इस काव्य का निहितार्थ इतने अच्छे ढंग से व्यक्त किया गया है इस लेख मेंं।
बहुत ही सुन्दर समायोजन
धन्यवाद
कोटि-कोटि धन्यवाद श्रीमानजी!