किसी भी समाज को आदर्श बनाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है। शिक्षा के द्वारा ही एक सभ्य समाज का निर्माण संभव है इसके अभाव में व्यक्ति पशु के समान जीवन व्यतीत करने पर विवश होता है। वह अच्छे बुरे में फर्क नहीं कर पाता उन्नति तथा अवनति में फर्क नहीं कर पाता।
आज के लेख में हम शिक्षा और आदर्श के संबंध को विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे।
शिक्षा और आदर्श भारतीय समाज का निर्माण
शिक्षा व्यक्ति , समाज और राष्ट्र के निर्माण का मुख्य साधन है, सामाजिक परिवर्तन और आदर्श समाज के निर्माण का भी। संसार का इतिहास बताता है कि जब कभी किसी समाज में बुराइयां बढ़ती है तो युवा वर्ग में आक्रोश बढ़ता है, समाज में क्रांति होती है,सामाजिक बुराइयां दूर होती है और आदर्श समाज का निर्माण होता है और युवाओं को इसके लिए तैयार करती है।
शिक्षा इस प्रकार किसी भी आदर्श समाज के निर्माण में शिक्षा की आधारभूत भूमिका होती है।परंतु वह यह कार्य तभी करती है जब उसकी व्यवस्था तदअनुकूल की जाती है।
आदर्श भारतीय समाज के निर्माण के लिए अब शिक्षा को दो कार्य करने होंगे – एक तो इसमें व्याप्त बुराइयों को दूर करना होगा और दूसरा समय की मांग के अनुसार इस में अच्छाइयां विकसित करनी होगी।
अब सबसे पहला प्रश्न यह है कि हम शिक्षा द्वारा किस प्रकार के आदर्श भारतीय समाज का निर्माण करना चाहते हैं।
हम जानते हैं कि समाज परिवर्तनशील होता है। इसकी आदर्श धारणा देशकाल के साथ बदलती रहती है।वर्तमान में आदर्श भारतीय समाज से तात्पर्य एक ऐसे समाज से है जिसका हर व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ हो मानसिक रुप से उन्नत हो, समाज सेवा के लिए तैयार हो, सांस्कृतिक दृष्टि से सहिष्णु हो और चरित्रवान हो।
साथ ही वह किसी व्यवसाय में निपुण हो और समाज एवं राष्ट्र के अनुकूल आचार – विचार वाला हो अपने लोकतंत्र में उसकी आस्था हो और वह अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग ठीक प्रकार से करें और कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करें।
यह एक ऐसा समाज हो जिसमें विभिन्न जातियां तो हो परंतु जातीय आधार पर वर्ग भेद ना हो, जिसमें विभिन्न संस्कृति या तो हो परंतु सांस्कृतिक टकराव ना हो, जिसमें विभिन्न धर्म तो हो परंतु धर्म के नाम पर संघर्ष ना हो, जिसमें सब अपना आर्थिक विकास तो करें परंतु कोई किसी का शोषण ना करें, और जिसमें जागरूकता तो हो एवं विस्तृत दृष्टिकोण हो और जो सदैव विकास की ओर अग्रसर हो।
ऐसे समाज के निर्माण के लिए हमें शिक्षा को नई दिशा देनी होगी।
पाठ्यचर्या का निर्माण
इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता है कि ये सब हमारी आज की शिक्षा के उद्देश्य हो और तदनुकूल उसकी पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाए। स्वतंत्र होने के बाद हमें अपनी शिक्षा के उद्देश्य भी तदनुकूल निश्चित किए हैं और शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण भी तदनुकूल करने का प्रयास किया है, परंतु इसमें अभी और परिवर्तन की आवश्यकता है , विकास तो एक सतत क्रिया है।
शिक्षा अनिवार्य एवं निशुल्क
दूसरी आवश्यकता है प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा से पूर्व 3 से 5 वर्ष आयु वर्ग के शिशुओं की अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की। वर्तमान (2013) में हमारे देश में केवल 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चे की कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निशुल्क है और इस लक्ष्य को भी अभी अपने पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं किया जा सका।
शिशु स्तर पर बच्चों की मांसपेशियों और घुटनों को मजबूत किया जाए , उनमें स्वास्थ्य संबंधी अच्छी आदतों सफाई व्यायाम उचित आहार – विहार का निर्माण किया जाए उनकी इंद्रियों को प्रशिक्षित किया जाए और मातृभाषा के माध्यम से बेझिझक बातचीत करने की क्षमता विकसित की जाए। और सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि उनमें आदर्श एवं मूल्य प्रधान छोटी – छोटी रोचक कहानियां सुनाई जाए और उनमें उचित आदर्श एवं मूल्यों की सुदृढ़ नींव रखी जाए।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि शिशु काल भाषा शिक्षा और आदर्श एवं मूल्यों के निर्माण के लिए सबसे उत्तम का काल है उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि बच्चे आगे चलकर वैसे ही बनते हैं जैसी शिशु काल में नींव रखी जाती है। हम जानते हैं कि वर्तमान में सामान्य परिवारों में शिशुओं में कुछ आदर्शों और मूल्यों की नींव नहीं रखी जाती। अतः यह कार्य अब शिशु शिक्षा संस्थाओं को करना है और उन्हें करना भी चाहिए।
कर्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करना –
तीसरी आवश्यकता है। प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा को समान , अनिवार्य एवं निशुल्क बनाने की जैसा की हमने ऊपर स्पष्ट किया है। वर्तमान में हमारे देश में केवल 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों के लिए कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा की अनिवार्यता निशुल्क है।
इस संदर्भ में हमारा पहला निवेदन तो यह है कि कक्षा 8 तक हम बच्चों को आज भी संश्लिष्ट समाज समाज के लिए तैयार नहीं कर सकते।
दूसरा निवेदन यह है कि उन्हें इतना जागरुक भी नहीं बनाया जा सकता कि वह अच्छे बुरे भी भेद कर सके , फिर इस आयु स्तर तक बच्चों के संवेग भी स्थिर नहीं होते ,उन में मूल्य अभी स्थिर नहीं हो पाते और उन्हें किधर भी मोडा जा सकता है।
यह हमारे देश में शिक्षा की कमी का ही प्रभाव है कि कोई भी नेता जनता को आसानी से बरगला लेता है। आप कहेंगे कि नेताओं के चक्कर में तो उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी आ जाते हैं , परंतु बहुत कम और वह भी स्वार्थवश बुद्धि प्रधान व्यक्ति न किसी नेता का भाषण सुनने जाते हैं और ना किसी पार्टी की रैली में जाते हैं।
इस प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा में हमें बच्चों के शारीरिक , मानसिक , सामाजिक , सांस्कृतिक , नैतिक और चारित्रिक विकास के लिए आदि से अंत तक प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही उन्हें लोकतंत्र के सिद्धांतों का ज्ञान कराया जाए और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान कराया जाए। केवल ज्ञान ही न कराया जाए अपितु उन्हें अपने अधिकारों का सही उपयोग करने और कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक करने की ओर उन्मुख भी किया जाए।
लोकतंत्र व्यष्टि का आदर करता है अतः आवश्यक है कि प्रारंभ से ही बच्चों में विभिन्न जातियों , संस्कृतियों और धर्मों के प्रति उदार दृष्टिकोण विकसित किया जाए। किसी भी राष्ट्र के सामने सदैव कोई ना कोई समस्या रहती है उनके समाधान के लिए वे लक्ष्य निश्चित करते हैं।
अतः उच्च प्राथमिक और माध्यमिक अर्थात कक्षा 6 से 10 तक बच्चों को इन लक्ष्यों का स्पष्ट ज्ञान कराया जाए और उनकी प्राप्ति के लिए उन्हें तैयार किया जाए और यदि हम इस स्तर पर धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा द्वारा बच्चों को एक अच्छा मनुष्य बना सके तो समझिए पूरा जंग जीत लिया।
व्यवसायिक शिक्षा धारा की ओर मोड़ना
वर्तमान में हमारे देश में +2 पर सामान्य छात्रों का को व्यवसायिक शिक्षा धारा की ओर मोड़ने का प्रस्ताव है। हमें अब इस प्रस्ताव को अमल में लाना चाहिए। तब इस स्तर पर अधिकतर छात्र व्यवसाय की धारा में मुड़ जाएंगे और वह अपनी रोजी रोटी कमाने योग्य बनेंगे।
इसमें एक और देश से बेरोजगारी दूर होगी और दूसरी और देश का आर्थिक विकास होगा। उस स्थिति में समाज से अनेक बुराइयां स्वयं दूर होगी तब ना सड़कों पर भीड़ दिखाई देगी और ना आए दिन रैलियों में भीड़ दिखाई देगी चोरी और लूटपाट की घटनाएं तो कम होंगी ही।
आज सरकार अपने स्तर पर छात्रों के लिए व्यवसाय शिक्षा की व्यवस्था कर रही है इसमें छात्रों को स्वयं की योग्यता के अनुसार व्यवसायिक शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिल रहा है , जिससे वह अपने हुनर को निखार कर व्यवस्थाएं के लिए तैयार हो रहे हैं। यह व्यवसाय केवल स्वयं के लिए नहीं अपितु समाज को भी वयवसाय उपलब्ध कराने के लिए शिक्षित हो रहे हैं।
यह कदम सराहनीय है जहां एक समाज मजदूरी करता है व्यवसाय करता है वह अपने बच्चे को पढ़ा नहीं पाता वह बच्चा उस स्कूल के जरिए अपने समाज में रोजगार प्राप्त कर सकता है ऐसी सरकार की मान्यता है यह कदम सराहनीय है।
नए-नए व्यवसायीक एवं तकनीकी पाठ्यक्रम
यूं इस बीच हमने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी सुधार किया है नए-नए व्यवसायीक एवं तकनीकी पाठ्यक्रम शुरू किए हैं और उन पाठ्यक्रमों को अद्यतन बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। परंतु इस शिक्षा से हम उतना लाभ नहीं उठा पा रहे जितना उठाना चाहिए था।
इसका मुख्य कारण है उच्च शिक्षा के द्वारा सबके लिए खुले होना और जिन पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु चयन व्यवस्था है उनमें भी जाति और धर्म के आधार पर आरक्षण होना। परिणाम यह है कि इनमें सामान्य स्तर के छात्रों का अभी प्रवेश हो जाता है यह देखा जा रहा है कि इस स्तर पर सामान्य छात्रों पर किया जा रहा वह व्यर्थ जा रहा है।
इतना ही नहीं अपितु आवश्यकत योग्यता एवं क्षमता के अभाव में यह अपने कार्य क्षेत्र में भी सही ढंग से कार्य नहीं कर पाते और इस प्रकार दोहरी हानि हो रही है। आवश्यकता इस बात की है कि उच्च शिक्षा के विभिन्न पाठ्यक्रमों में केवल मेधावी एवं परिश्रमी छात्रों को ही प्रवेश दिया जाए और वह भी उनकी रुचि रुझान योग्यता और क्षमता के आधार पर। उस स्थिति में हम इतने ही व्यस्त उच्च स्तर के विशेषज्ञों का निर्माण कर सकेंगे कोई देश विशेषज्ञों के आधार पर ही उन्नति करता है।
नागरिकों को जागरूक और विवेकशील बनाना
नागरिकों को जागरूक और विवेकशील बनाने की आवश्यकता है , जब तक नागरिकों में अच्छाई – बुराई में भेद करने की विवेक शक्ति ना होगी तब तक ना तो वह अपने समाज में बुराइयों को दूर कर सकेंगे और ना उनमें अच्छाइयों का विकास कर सकेंगे।
नैतिक एवं चारित्रिक विकास
यदि सच पूछा जाए तो इस समय हमारे भारतीय समाज में सबसे बड़ी कमी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की है यूं इस कमी को दूर करने के लिए हम नैतिक एवं चारित्रिक विकास की बात प्रारंभ में ही कर चुके हैं।
परंतु यहां यह कहना चाहते हैं कि नैतिकता एवं चरित्र के आधार आदर्शों और मूल्यों के निर्माण का प्रयास हमें शिशु काल से ही करना होगा और शिक्षा के किसी भी स्तर पर जारी रखना होगा।
मूल्य हमारे व्यवहार के निर्देशक और नियंत्रक होते हैं। यदि हम अपने आने वाली पीढ़ी में उच्च मूल्यों का निर्माण कर सके तो फिर समझिए समाज में बुराई नाम की कोई चीज नहीं रहेगी।
कुल मिलाकार हम कह सकते हैं की शिक्षा ही एक आदर्श समाज का निर्माण करती है। शिक्षा ही समाज का मार्गदर्शन करती है तो यह कहना अनुचित न होगा की समाज में जैसी शिक्षा होगी समाज भी वैसा ही होगा।
आज सरकारों को समाज की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम को त्यार करना चाहिए ,जहा आज लोगो के पास बेरोजगारी है सब बढे – लिखे तो है किन्तु कोई काम नहीं होने के कारण अपना ज्ञान गलत जगह लगाते है तो सरकार उनके लिए वयवसायिक शिक्षा का मार्ग निकाल सकती है जिसमे वह वयवसायिक शिक्षा लेकर अपना रोजगार खोल सकते है और अन्य दुसरे लोगो को रोजगार भी दे सकते है।
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निष्कर्ष
2020 में लागू की गई नई शिक्षा पाठ्यक्रम उपरोक्त सभी आवश्यकताओं की लगभग पूर्ति करता हुआ प्रतीत होता है क्योंकि इससे पूर्व शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को किन्ही मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए था जबकि नई शिक्षा व्यवस्था में बालक का सर्वांगीण विकास के साथ-साथ उसके रुचि के विषय को भी ध्यान में रखा गया है यहां मुख्य रूप से शिक्षा का केंद्र विद्यार्थी है।