इस लेख में सभी रस का उदाहरण, परिभाषा, अंग तथा भेद आदि का विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। यह लेख रस के सभी आयामों को स्पष्ट करने में सहायक है। यहां अध्ययन के बाद आप रस को बेहद ही आसानी से समझ सकेंगे और अपने परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों का ठीक प्रकार से उत्तर दे सकेंगे।यह लेख विद्यालय, विश्वविद्यालय तथा प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कारगर है। इसका अध्ययन कर आप अपने परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर सकते हैं।
रस के अंग और भेद
रस काव्य का मूल आधार प्राण तत्व अथवा आत्मा है। रस का संबंध सृ धातु से माना गया है, जिसका अर्थ है जो बहता है। अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है वही रस है।एक अन्य मान्यता के अनुसार रस शब्द का अर्थ है, जिसका आस्वादन किया जाए।
वस्तुतः रस क्या है ? इसका उत्तर रसवादी आचार्यों ने अपनी अपनी प्रतिभा के अनुरूप दिया है। रस शब्द अनेक संदर्भ में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्भ में इसका अर्थ अलग-अलग होता है।उदाहरण के लिए पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के लिए, आयुर्वेद के शस्त्र आदि धातु के अर्थ में भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य में काव्य आस्वाद या काव्यानंद के लिए रस का प्रयोग किया जाता है।
1 श्रृंगार रस
श्रृंगार रस को रसराज माना गया है, क्योंकि यह अत्यंत व्यापक रहा है श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग+आर। ‘श्रृंग’ का अर्थ है कामोद्रेक ‘आर’ का अर्थ है वृद्धि प्राप्ती। अतः श्रृंगार का अर्थ हुआ कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव दांपत्य प्रेम है । पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका कि प्रेम की अभिव्यंजना की श्रृंगार रस की विषय वस्तु है प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहां है।
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इस परकीया प्रिया – चित्रण रस ना कहलाकर रस आभास कहलायेगा श्रृंगार रस में इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि उसमें अश्लीलता का समावेश न होने पाए। श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दो प्रमुख भेद होते हैं इन दोनों के अंतर्गत जीवन के न जाने कितने क्रियाकलाप सुख कारण का भाव वेदनाएं स्थान पाते हैं इसको विस्थापन की कोई सीमा नहीं है इसी कारण ही इसे रसराज कहा जाता है जो प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है कष्टों में पलता है जिसमें प्रिय के प्रति मंगलकामनाएं प्रकट होती है वह प्रेम ही उदास श्रृंगार रस का विषय बनता है ।
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रस के अंग और भेद | रसराज | संयोग श्रृंगार | ras full notes in hindi
श्रृंगार रस को निम्न उदाहरण के द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है –
१ संयोग श्रृंगार रस
संयोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका की मिलन अवस्था का चित्रण किया जाता है।
उदाहरण :-
‘में निज आलिन्द में खड़ी थी सखी एक रात
रिमझिम बूंदें पढ़ती थी घटा छाई थी
गमक रही थी केतकी की गंध
चारों और झिल्ली झनकार
वही मेरे मन भाई थी। ।
चौक देखा ! मैंने चुप कोने में खड़े थे प्रिय ,
माई मुख लज्जा उसी छाती में छुपाई थी।(साकेत)
यहां पर
आश्रय-उर्मिला
आलंबन-लक्ष्मण
स्थाई भाव-रति (प्रेम )
उद्दीपन-केतकी की गंध, रिमझिम बरसा, झिल्ली की झंकार, बिजली का चमकना आदि
संचारी- हर्ष, धैर्य,लज्जा ,रोमांच
अनुभाव- नुपुर का बजना, छाती से लगा लेना आदि।
इस प्रकार यह संयोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक है।
२ वियोग श्रृंगार रस
वियोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो पाता प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-
1 पूर्व राग- पहले का आकर्षण
2 मान- रूठना
3 प्रवास- छोड़कर जाना
4 करुण विप्रलंभ- मरने से पूर्व की करुणा ।
पूर्व राग- पूर्व राग मे विवाह या मिलन से पूर्व का जो आकर्षण होता है जैसे रामचरितमानस में पुष्प वाटिका का प्रसंग ।
मान- आशा के प्रतिकूल बात होने पर जब स्वाभिमान जागृत होता है तब मान की दशा होती है जैसे कृष्ण का दूसरे गोपियों के साथ रास रचाना और उनपर राधा का रूठना।
प्रवास- वियोग की पूर्वअवस्था प्रिय के प्रवास पर ही होती है और विशेष रूप से जब आने की भाषा होती है और वह नहीं आता तो वियोग और गहरा हो जाता है ।
मानस मंदिर में सती, पति की प्रतिमा थाम
चलती सी उस विरह में बनी आरती आप
आंखों में प्रिय मिलती थी
भूले थे सब भोग हुआ विषम से भी
अधिक उसका विषम व योग ।
यहां
आश्रय- उर्मिला
आलंबन- प्रवास रत लक्ष्मण
उद्दीपन- आंखों में प्रियतम की मूर्ति
अनुभाव- भोगों का परित्याग, स्वामी का ध्यान
संचारी- स्मृति, जड़ता, धैर्य, आदि।
इन सब के संयोग से लक्ष्मण विषय रति भाव वियोग रस में परिणीत हुआ है ।
३ करुण विप्रलंभ
करुण विप्रलंभ वहां होता है जहां प्रेमी या प्रेमिका में से किसी एक दिवंगत होने की पूरी संभावना पर भी जीवित होने की आशा बची रहती है, जिसमें अपने प्रिय के प्रति हृदय में करुणा से भरी शोक धारा प्रवाहित होती है और मिलन की आशा बनी रहती है।
2 हास्य रस
हास्य रस का स्थाई भाव हास्य है साहित्य में हास्य रस का निरूपण बहुत ही कठिन कार्य होता है क्योंकि थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक में बदल कर रह जाता है। हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए हास्य और व्यंग्य दोनों में अंतर है दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है लेकिन हास्य हमें जहां आता है वही खिलखिला देते हैं लेकिन जहां व्यंग्य आता है वहां चुभता है और सोचने पर विवश करता है।
अपने यहां संसद तेली की वह धानी
जिसमें आधा तेल है और आधा पानी
दरअसल अपने यहां
जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।।
यहाँ
आश्रय- पाठक और श्रोता गण है
आलंबन- संसद, जनतंत्र का तमाशा
अनुभाव- वर्तमान स्थिति और उसकी विडंबना कही जा सकती है।
3 करुण रस
भवभूति करूण रस को एक मात्र रस मानते थे। एकोरसः करुण मानते थे वह करुण रस के दो भेद करते हैं
1 स्वनिष्ठ
2 परनिष्ठ
करुण रस में हृदय द्रवित हो कर स्वयं उन्नत हो जाता है भावनाओं का ऐसा परीसपाद होता है कि अन्य रस तरंग किया बुलबुले के समान बहने लगते हैं इसका स्थाई भाव शोक है करुण रस लीन मग्न होकर हमारी मनोवृत्तियों स्वच्छ होकर निर्मल हो जाती है।
दृग खोलकर बेटा तनिक तो देख
हम सब को
यहां मामा खड़े हैं पास तेरे तू यहीं पर है पड़ा ।।
यहां पर
स्थाई भाव- शोक
आश्रय- द्रोपदी है
आलंबन- अभिमन्यु
उद्दीपन- मृत शरीर
अनुभाव- अभिमन्यु को आंख खोलकर देखने के लिए कहना, गुरुजनों का मान रखना, स्मृति, आवेग, जड़ता।
इस प्रकार विभाव अनुभाव संचारी भाव के करुण रस का सुंदर भाव प्रकट हुआ है ।
4 वीर रस
समाजिकों के हृदय में वासना रुप से विद्यमान उत्साह स्थाई भाव काव्यों आदि में वर्णित विभाव अनुभाव संचारी भाव के संयोग से जब रस अवस्था में पहुंचकर आस्वाद योग्य बन जाता है तब वह वीर रस कहलाता है।इसकी मुख्यता चार प्रवृत्ति है
1 दयावीर
दयावीर भाव की अभिव्यक्ति वहां होती है जहां कोई व्यक्ति किसी दिन दुखी पीड़ित जन को देखकर उसकी सहायता करने में लीन हो जाता है । जैसे –
देखि सुदामा की दीन दशा
करुण करके करूणानिधि रोए।।
2 दानवीर
इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता का होना अनिवार्य है
क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात
का रहीम हरि को गए जो भिक्षु मारी लात।।
3 धर्मवीर
इसके स्थाई भाव में धर्म स्थापना का उद्देश्य प्रमुख होता है दूसरों से धर्म की महत्ता का ज्ञान प्राप्त करना अपनी टेक (प्रतिक्रिया) का पालन करना इस में प्रमुख रुप से व्याप्त होता है।
4 युद्धवीर
काव्य में सबसे अधिक महत्व युद्धवीर का है लोक में भी वीर रस से तात्पर्य युद्धवीर से ही लिया जाता है इसका स्थाई भाव ‘शत्रुनाशक उत्साह ‘ है
मैं सच कहता हूं सखे, सुकुमार मत जानो मुझे
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा जानो मुझे
है और उनकी बात क्या गर्व मैं करता नहीं
मामा और निजी ताज से भी समर में डरता नहीं।।
यह उक्ति अभिमन्यु ने अपने साथी को युद्ध भूमि में कही है।
यहां
आलंबन- गौरव
विभाव- द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह रचना
उद्दीपन विभाव- अर्जुन की अनुपस्थिति
अनुभाव- अभिमन्यु का उत्साह पूर्ण का वाक्य संचारी भाव हर्ष, गर्व,घृत, आदि।
इन सभी के संयोग से उत्साह नामक स्थाई भाव वीर रस में परिपक्व हुआ है।
5 भयानक रस
विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के प्रयोग से जब सर्व हृदय समाजिक के हृदय में विद्यमान है स्थाई भाव उत्पन्न हो कर या प्रकट होकर रस में परिणत हो जाता है तब वह भयानक रस होता है वह की वृत्ति बहुत व्यापक होती है यह केवल मनुष्य में ही नहीं समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
एक और अजगरही लाखी एक और मृगराही
विकट बटोही बीच ही परयो मूरछा खाई ।।
यहां
आलंबन- अजगर और शेर
विभाव- उनकी चेष्टाएं
उद्दीपन विभाव- बटोही
आश्रय- मूरछा
अनुभाव संचारी भाव- त्रास, विशद् आदी
6 रौद्र रस
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूलकर तल युगल मलने लगे ।
संसार देखें अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े ।
करते हुए यह घोषणा वह हो गए उठ खड़े ।।
यहां
आलंबन- अभिमन्यु के वध पर कपटी, दुराचारी, अन्याय को रोका हर्ष प्रकट करना है
उद्दीपन- श्री कृष्ण के वचन
अनुभाव- अर्जुन के वाक्य क्षोब से जलना, आंखें लाल होना हाथों को मला आदि
संचारी भाव- उग्रता, आवेद, चपलता, आदि के संयोग से रोद्र रस की व्यंजना है।।
7 वीभत्स रस
घृणित वस्तुओं को देखकर या सुनकर जुगुप्सा नामक स्थाई भाव जब विभाव अनुभाव संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व अवस्था में पहुंच जाता है तो विभत्स रस में परिणत हो जाता है इसे रसों में शामिल करने का कारण तीव्र वह तुरंत रूप से प्रभावित करने की शक्ति है वैसे श्रृंगार रस हास्य रसों का आनंद विभत्स रस के द्वारा ही लिया जा सकता है ।
नाट्यशास्त्र के आधार पर आचार्य विश्वनाथ की निम्न पंक्तियों पंक्तियां आज तक विभत्स रस का स्वरूप या लक्षण बताने में प्रयुक्त होती रही है।विभत्स रस उसे कहते हैं जिसका स्थाई भाव जुगुप्सा वारीनील इसके आलंबन दुर्गंध में मांस रक्त है इनमें कीड़े पड़ना ही उसका उद्दीपन माना जा सकता है।और मोह आवेग व्याधि, मरण, आदि व्यभिचारी भाव है।विभत्स रस में अनुभाव की कोई सीमा नहीं है।वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि अपशब्द निंदा करना आदि कायिक अनुभावों में नाक-भौं चढ़ाना, थूकना, आंखें बंद करना, कान पर हाथ रखना, ठोकर मारना, आदि की गणना की जा सकती है।
प्रेमचंद जैसे सामाजिक साहित्यकारों को विसंगतियों के प्रति वीजभाव घृणा हीन है।आधुनिक साहित्य में इसका खूब चित्रण हुआ है।क्योंकि यह जीवन निर्माण की अद्भुत शक्ति रखता है।
रक्तबीज सौ अधर्मी आयो
रणदल जोड़ के सूर क्रोध आयो
अस्त्र-शस्त्र सजाए के
योग नींद को रक्त पिलायो
अंतरिक्ष में पठाए के महामूढ
निस्तंभ योद्धा ठानों है खड़ग।।
8 अद्भुत रस
अद्भुत रस का स्थाई भाव विस्मय है विस्मय में मानव की आदिम प्रवृत्ति है खेल-तमाशे या पूरे कला कौशल से उत्पन्न विस्मय में उदात भाव हो सकता है परंतु रस नहीं हो सकता।अद्भुत रसों का व्यापक वर्णन हमारे साहित्य में हुआ है लेकिन हम उसे रस के स्थान पर आदि शब्दों का प्रयोग कर छोड़ देते हैं ऐसी शूक्तियां और व्यंजना है जिसमे चमत्कार प्रधान होता है वह सीधे अद्भुत रस से संबंध है।
उदाहरण
अखिल भुवन चर अचर सब हरि
मुख में लखी मांतो
चकित भई गदगद वचन
विकसित दृग कूल काव ।।
अतः अद्भूत अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं वस्तुओं व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार को क्रियाकलापों के आलंबन से प्रकट होता है उनके अद्भुत व्यापार घटनाएं परिस्थितियां उद्दीपन बनती है आंखें खुली रह जाना एक टक देखना प्रसन्न होना रोंगटे खड़े हो जाना कंपन स्वेद ही अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं। उत्सुकता, जिज्ञासा, आवेग, भ्रम, हर्ष, मति,गर्व, जड़ता, धैर्य, आशंका, चिंता, अनेक संचारी भाव से धारण कर अद्भुत उदास रूप धारण कर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है ।
9 शांत रस
शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव और वैराग्य से होती है इसका स्थाई भाव निर्वेद है विभाव अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणत हो जाता है। आनंद वर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव बताया है।वैराग्य की आध्यात्मिक भावना शांत रस का विषय है।संसार की अस्वता मृत्यु जरा को आदि इसके आलंबन होते हैं जीवन की अमित्यता का अनुभाव सत्संग धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन श्रवण आदि उद्दीपन विभाव है और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव कहे जा सकते हैं । शांत रस के संचारी में मति ग्लानि, घृणा, हर्ष, स्मृति, संयोग, विश्वास, आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है। भारत में कवि मानव महात्मा बुद्ध, दयानंद, विवेकानंद, आदि की समष्टि साधना और परमार्थ भावना शांत रस की रसानुभूति होती है।इसमें आध्यात्मिक शांति का सबसे ज्यादा महत्व है जो ना केवल वैराग्य को प्रकट करता है अपितु जीवन में संतोष की सृष्टि भी करता है।
प्रचनन रोग से प्रकट हो संयोग मात्र भारी वियोग हाँ लोभ -मोह मे लीन लोग भूले है अपना परिनाम
ओ क्षण भंगुर भव राम राम ।।
जब सिद्धार्थ घट छोडकर वन मे जाते है तो वह संसार को सम्बन्धित करते हुए उससे विदा माँगते है।संबोधित करते हुए उससे विदा मांगते हैं, इन पंक्तियों में सिद्धार्थ निर्वेद स्थाई भाव का आश्रय यह संसार ही इसका आलंबन है संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान उद्दीपन है। संसार को संबोधित करना घर छोड़कर भागने को कहना और संसार से विरक्ति भाव आदी अनुभाव है। दैनिय, धर्म, रोमांच आदि संचारी भाव है। यहां शांत रस का सुंदर परिपाक है क्योंकि शांत रस वस्तुतः ऐसे मानसिक स्तूती है जिसमें व्यक्ति समस्त संसार को सुखी और आनंदमय देखना चाहता है।
10 वात्स्ल्य रस
वात्सल्य रस का आलंबन आधुनिक आचार्यों की देन है। सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य भाव का सुंदर विवेचन किया और इसके बाद इसे अंतिम रूप से रस स्वीकार कर लिया गया। आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य की स्वतंत्र रूप में प्रतिष्ठा तो की परंतु इसे ज्ञापल स्वीकृति सूर, तुलसी आदि भक्ति में काल के कवियों द्वारा ही प्रदान की गई।
वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सल है। बच्चों की तोतली बोली, उनकी किलकारियां, मनभावन खेल अनेक प्रकार की लीलाएं इसका उद्दीपन है। माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना, आनंदित होना, हंसना उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं।आवेद, तीव्रता, जड़ता, रोमांच, स्वेद, आदि संचारी भाव है। इसमें वात्सल्य रस के दो भेद किए गए हैं
१ संयोग वात्सल्य
२ वियोग वात्सल्य
11 भक्ति रस
संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की स्वतंत्र रूप से नहीं है। किंतु बाद में मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया। इस रस का संबंध मानव के उच्च नैतिक आध्यात्मिक से है। इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है भगवान के प्रति पुण्य भाव श्रवण, सत्संग कृपा, दया आदि उद्दीपन विभाव है। अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि के लिए किए जा सकते हैं अनेक प्रकार के कायिक, वाच्य, आहार्य, जैसे आंसू , रोमांच, स्वेद, आदि अनुभाव कहे जा सकते हैं।संचारी रूप में हर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धैर्य संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है।
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समापन
रस भारतीय साहित्य का अभिन्न अंग है कोई भी साहित्य बिना रस के पूर्ण नहीं माना गया है। मनुष्य संबंधित किसी भी भाव को रस से जोड़कर देखा जाता है। मनुष्य जिस प्रकार का अनुभव विचार अपने मन मस्तिष्क में अनुभव करता है वह रस का एक अंग है। आचार्य तथा विद्वानों ने रस को विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत किया है। उपरोक्त उदाहरण से आप समझ गए होंगे आपको यह लेख कैसा लगा? अपने सुझाव तथा विचार कमेंट बॉक्स में लिखें, ताकि हम लेख को और अधिक सुधार के साथ प्रस्तुत कर सकें।
Tq soooo much
It helped me a lot
But the language was a little bit hard to understand