छंद की परिभाषा, भेद, तथा उदाहरण ( संपूर्ण ज्ञान )

प्रस्तुत लेख में छंद के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। इसकी आवश्यकता तथा उसकी उपयोगिता विशेषकर हिंदी काव्य में किस प्रकार है वर्णनात्मक रूप से इस लेख में विवेचन करेंगे।

यह लेख विद्यार्थियों के कठिनाई स्तर को ध्यान में रखकर लिखा गया है अतः अंत तक इस लेख को पढ़ें अपने प्रश्न भी पूछें।

छंद किसे कहते हैं उदाहरण सहित

काव्य में छंद की आवश्यकता तथा महत्व को उजागर करते हुए इस विषय पर प्रकाश डालिए।

मनुष्य संगीत प्रेमी है, वह सौंदर्य के प्रति सदैव आकर्षित रहता है। छंद में काव्य की सुंदरता को बढ़ाने की शक्ति होती है। कविता और छंद का सदैव अटूट संबंध रहा है। प्राचीन काल में भी जितने काव्य तथा साहित्य लिखे गए हैं, वह सभी छन्दोबद्ध रूप में ही देखने को मिलते हैं। इन छंदों के आधार पर ही संगीत का निर्माण संभव हो सका है। विभिन्न प्रकार के शास्त्रीय संगीत इस पर ही आधारित हैं।

प्राचीन काल से लेकर भक्तिकाल, रीतिकाल तक की कविता में छंदों की अनिवार्यता देखी गई है। छंद का व्यवस्थित क्रम में होने से स्वर निर्माण के कारण काव्य में संगीतात्मकता उत्पन्न किया जाता था। इस के विषय में आधुनिक तथा प्राचीन कवियों में थोड़ी बहुत विचारधारा में भेद देखने को मिलता है। प्राचीन कवि जो छंदबद्ध कविता लिखने में विश्वास करते थे, वही आधुनिक कवियों ने इस बंधन का विरोध करते हुए छंदमुक्त कविता का भी समर्थन किया है।

इस विषय पर सर्वप्रथम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने विचार व्यक्त किए थे।

द्विवेदी विशेषकर अयोध्या सिंह उपाध्याय तथा मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य पर अपने विचार दिए जिसमें तुकांत, अतुकांत जैसे शब्दों पर भी जोर दिया। द्विवेदी जी ने अनुभवी और विशेषज्ञ कवियों को विभिन्न प्रकार के छंद का प्रयोग करने के लिए कहा। उन्होंने अंततः अपने बात का सार एक शब्द में कहा – जिस काव्य को पाठक ने रुचि लेकर पढ़े, जो काव्य सरस और मनोहारी होगा, वही सफल काव्य माना जाएगा।  चाहे उसमें छंद का प्रयोग हो अथवा नहीं।

छंद के विषय में विभिन्न राय

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला – ने छंद भाषा लयबद्ध आदि का विरोध नहीं किया। किंतु उन्होंने नियमबद्ध गणना और एक निश्चित रूप रेखा का विरोध किया। उनका मानना था कि समय के अनुसार इसके विभिन्न स्वरूप को स्वीकार किया जाना चाहिए।  अर्थात उनका पुनः नामकरण किया जाना चाहिए।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी – परंपरागत चली आ रही छंद की पद्धति को अपनाने पर बल दिया, साथ ही सिद्ध कवियों को नए छंद प्रयोग करने का भी आह्वान किया, जो काव्य को सरस तथा मनोहारी बनाते हो।

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध – ने भी छंद के विभिन्न बदलते स्वरूप को अपनाने पर बल दिया, क्योंकि उन्होंने भी परंपरागत चली आ रही परिपाटी में लेखन करने में कठिनाई का अनुभव किया था।

उपरोक्त कवियों की भांति अन्य कवि तथा साहित्यकारों ने अपने विचार रखे और छंद के विभिन्न स्वरूप की खोज करने तथा उसे अपनाने पर बल दिया। पुराने छंद किसी भी साहित्य को बांध देने की प्रवृत्ति रखते थे, जिसमें लेखन कार्य करना कठिन हो जाता था।

छंद के विषय में सामूहिक राय

  • यह कविता तथा साहित्य का अनिवार्य तत्व है, इसके अभाव में संगीत निरस प्रतीत होता है।
  • छंद रहित कविता पाठ्य योग्य नहीं रह जाती, यह कविता पद्य साहित्य के निकट हो जाती है।
  • छंद किसी भी रूप में हो उसकी प्रवाह तथा सौंदर्य की शक्ति को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।
  • कवि अपने प्रतिभा से नए छंद आदि का निर्माण कर सकते हैं। किंतु उन्हें काव्य को सरस तथा मनोहारी बनाने पर ध्यान अवश्य देना चाहिए।
  • काव्य तथा कविता में ऐसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिससे संगीतात्मकता उत्पन्न हो और उसके शब्द सजीव हो उठे।

छंद के तत्व तथा भेद

छंद के माध्यम से कविता में गेयता आती है, जिसके कारण कविता संगीतात्मक तथा लयबद्ध हो पाता है। साधारण शब्दों में समझें तो यह वह सांचा है जिसमें मात्राओं तथा अक्षरों को क्रमशः गति और यति प्रदान की जाती है। जिसके कारण कविता गायन योग्य बन पाती है।

इसके मूलभूत दो तत्व माने गए हैं – 1 स्वर ध्वनि तथा 2 यति

  1. स्वर- ध्वनि – छंद का संपूर्ण गणित स्वर ध्वनियों पर आधारित है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि छंद स्वर-ध्वनियों का मूल तत्व है।  स्वर ध्वनियों की गणना दो प्रकार से की जाती है १ मात्राओं को गिन कर तथा २ अक्षरों को गिन कर।
  2. यति – छंद का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व जाती है यति को विराम भी कहा जाता है। इसको बोलते समय या गाते समय जहां ठहराव की स्थिति होती है वह यति अर्थात विराम का प्रयोग किया जाता है।

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छंद के प्रमुख प्रकार

मात्रिक छंद विभिन्न प्रकार के है, यहां हम कुछ प्रमुख प्रचलित छन्द के उदाहरण तथा परिभाषा प्रस्तुत कर रहे हैं

1. चौपाई

चौपाई को सम मात्रा छंद कहते हैं। इसके चारों चरण में मात्राओं की समानता होती है। प्रत्येक चरण में सोलह-सोलह मात्राएं होती है। इसकी विशेषता यह है कि यह तुकांत होती है।

2. दोहा

दोहा को अर्ध सम मात्रा छंद कहते हैं। इसमें दो ( पहला और तीसरा ) चरण 13-13 मात्राओं का तथा दो (दूसरा और चौथ) चरण 11-11 मात्राओं का होता है। कुल मिलाकर इसमें 48 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है।

3. सोरठा

यह दोहा की भांति अर्थसम मात्रा छंद है, इसमें भी 48 मात्राओं की उपलब्धता होती है। किंतु यह दोहा के विपरीत होता है। इसमें (पहला तथा तीसरा) चरण 11-11 मात्राओं का तथा (दूसरा और चौथा) चरण 13-13 मात्राओं का होता है।

4. रोला

रोला सम मात्रिक छंद है। इसकी चारों पंक्तियों में 24-24 मात्राएं होती है। कभी-कभी इसकी पंक्तियां 11-13 भी होती है। एक-दो, तीन-चार पंक्ति में तुकांत भी रहता है।

5. कुंडलिया

कुंडलिया को मिश्रित छंद कहा गया है। इसके अंतर्गत दोहा, रोला की उपस्थिति होती है। यह 6 पंक्तियों का है, प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्राएं होती है। प्रथम दो पंक्ति में दोहा  होता है तथा बाद की चार पंक्तियों में रोला होता है।

6. उल्लाला

उल्लाला को अर्धसम मात्रिक छंद माना गया है। इसकी 1-3 पंक्तियों में 15-15 मात्राएं होती है। 2-4 पंक्ति में 13-13 मात्राएं होती है। कुल मिलाकर उल्लाला में 56 मात्राओं की उपस्थिति होती है।

7 छप्पय

छप्पय को मिश्र छंद माना गया है, जिसमें रोला और उल्लाला का मेल होता है। पहली चार पंक्ति में रोला की उपस्थिति है। अंतिम दो में उलाला छंद होता है।

कुछ अन्य प्रकार

8 बरवै

बरवै अर्धसम मात्रिक छंद है, जिसमें 1-3 चरणों में 12-12 मात्राएं और 2-4 में 7-7 मात्राएं होती है। इसमें तुकांत भी होता है।

9 हरिगीतिका

हरिगीतिका सम मात्रा छंद है।  प्रत्येक पंक्ति में 28 मात्राएं होती है। अधिकतर 16-12 पर यति होती है। इनकी 2-2 पंक्तियों में तुकांत होता है।

10 गीतिका

यह सब मात्रा है।  प्रत्येक पंक्ति 14-12 का यति क्रम होता है। अंत में तुकांत भी होता है।

11 तोमर

तोमर सम मात्रा है। इसके प्रत्येक चरण में 12 मात्राएं होती है। चरणों के अंत में तुकांत भी होता है।

12 पीयूषवर्ष

यह सम मात्रा है। प्रत्येक पंक्तियों में 19 मात्राएं होती है। सभी चरणों में तुकांत होता है।

13 ताटंक

यह सम मात्रा छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 30 मात्राएं होती है, प्रायः 16-14 पर यति होती है।

14 लावनी

लावणी सम मात्रा है इसमें ताटंक की भांति 30 मात्रा होता है।

15 आल्हा या वीर छंद

आल्हा या वीर छंद में 31 मात्राओं की उपस्थिति होती है, यह सम मात्रा है जिसमें 16-15 पर यति होता है।

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समापन

उपरोक्त अध्ययन में हमने पाया कि छंद के विभिन्न रूप हैं, जिन्हें काव्य के सौंदर्य वृद्धि में प्रयोग किया जाता है। इसके और अनेकों रूप भी हो सकते हैं आधुनिक कवियों के अनुसार इसकी वृद्धि की जानी चाहिए।

प्रचलित छंद को हमने ऊपर विस्तृत रूप से व्याख्या सहित उपलब्ध कराया है। परीक्षा के हिसाब से आपको इस विषय का अध्ययन बहुत ध्यान पूर्वक करना चाहिए क्योंकि इसे समझना थोड़ा कठिन होता है, हम आपसे अनुरोध करेंगे कि आप इस लेख को बार-बार पड़ेगा कि आपको यह विषय कंठस्थ हो जाए और आप अपनी परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकें।

अगर आपके मन में किसी भी विषय से जुड़ा सवाल आता है तो नीचे कमेंट बॉक्स में जरूर पूछें, कई बार लोगों को दोहा, सोरठा, कुंडलियां, गीतिका, जैसे विषय समझ में नहीं आते। इन विषय से जुड़े प्रश्नों का उत्तर देने में हमें खुशी होगी तथा अन्य विद्यार्थी भी इसका लाभ उठा पाएंगे।

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