समाज एवं शिक्षा | समाजशास्त्र | समाज की परिभाषा | समाज और एक समाज में अंतर | Hindi full notes

समाज एवं शिक्षा | समाजशास्त्र  | समाज और एक समाज में अंतर | समाज एवं शिक्षा में संबंध ( Relation between society and Education )

सामान्य रूप से दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। व्यक्तियों इन समूहों का अध्ययन सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। मानव शास्त्र में मनुष्यों के किसी भी समूह को समाज की संज्ञा दी जाती है। यहां बता दें कि आदिम समुदाय को भी समाज की संज्ञा दी जाती है। भूगोल के आधार पर भी समान सभ्यता वाले लोगों के समुदाय को समाज कहते हैं। जैसे यूरोपीय समाज , एशियाई समाज , या भारतीय समाज। धर्म शास्त्र में धर्म के आधार पर समाज का वर्गीकरण किया जाता है। जैसे हिंदू समाज , ईसाई समाज , और मुसलमान समाज। राजनीति शास्त्र में राज्य विशेष के लोगों को समाज कहते हैं जैसे भारतीय समाज , पाकिस्तानी समाज , नेपाली समाज इत्यादि।

समाजशास्त्र

समाजशास्त्रीय अर्थ में व्यक्तियों को समाज नहीं कहते अपितु समाज के व्यक्तियों में पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों की पारस्परिक व्यवस्था की संरचना को समाज कहते हैं। अब विचारणीय प्रश्न यह है कि सामाजिक संबंध क्या है ? जब दो या दो से अधिक व्यक्ति आपस में अपने विचारों , परंपराओं ,अपने लगाव , को व्यक्त करता है दूसरा व्यक्ति उस पर अपनी प्रतिक्रिया देता है वहां सामाजिक संबंध स्थापित होता है। यह आवश्यक नहीं कि यह संबंध मधुर और सहयोगात्मक ही हो यह कटु और संघर्षात्मक भी हो सकते हैं। समाजशास्त्र में इन दोनों प्रकार के संबंधों का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार समाज का सर्वप्रथम मूल तत्व दो या दो से अधिक व्यक्तियों की पारस्परिक जागरूकता है।

SOCIOLOGY

दो या दो से अधिक व्यक्तियों के एक दूसरे के प्रति सचेत होने के लिए यह आवश्यक है कि उनके उद्देश्य अथवा विचारों में या तो समानता हो या भिन्नता। इस प्रकार समानता अथवा भिन्नता समाज का दूसरा मूल तत्व होता है। यह पारस्परिक जागरूकता दो ही रूपों में परिणित हो सकती है। सहयोग में अथवा संघर्ष में। इसलिए सहयोग अथवा संघर्ष को समाज का तीसरा मूल तत्व माना जाता है। वस्तुतः यह है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक दूसरे के प्रति सचेत होते हैं। और वह तब तक इन संबंधों से नहीं बनते। जब तक उनकी एक  दूसरे से अपनी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती इसे समाजशास्त्री अन्योन्याश्रित कहते हैं।

यह समाज का चौथा मूल तत्व होता है। समाज के बारे में 2 तथ्य और हैं एक तो यह कि समाज अमूर्त होता है। और दूसरा यह कि केवल मनुष्य जाति में ही नहीं अपितु पशु – पक्षियों और कीड़े – मकोड़ों में भी पाया जाता है। यह बात दूसरी है कि समाजशास्त्र में केवल मानव समाज का ही अध्ययन किया जाता है।

समाज की परिभाषा

सभी समाजशास्त्री समाज को अमूर्त मानते हैं परंतु उसकी परिभाषा उन्होंने भिन्न भिन्न रुप में की है कुछ मुख्य परिभाषाएं प्रस्तुत है –


टालकाट पार्सन्स 
के शब्दों में –

                               समाज को पुनः मानवीय संबंधों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जो साधन तथा साध्य के संबंध द्वारा क्रिया करने से उत्पन्न होते हैं। वह चाहे वास्तविक हो या प्रतिकात्मक। 

मैकाइवर और पेज

               ने समाज को थोड़े अधिक स्पष्ट रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार समाज रीतियों तथा कार्य प्रणालियों की अधिकार तथा पारस्परिक सहयोग की अनेक समूहों और विभागों की मानव व्यवहार के नियंत्रण और स्वतंत्रताओं की एक व्यवस्था है इस सतत परिवर्तनशील व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। 

इसी बात को उन्होंने आगे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार कहा है। यह समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है जो सदैव बदलता रहता है। 

लापियर

 महोदय द्वारा प्रस्तुत परिभाषा अपने में संक्षिप्त भी है और स्पष्ट भी। उनके शब्दों में समाज से तात्पर्य व्यक्तियों के समूह से नहीं अपितु समूह के व्यक्तियों के बीच होने वाली अंतर्क्रिया की जटिल  व्यवस्था से है। 

समाज और एक समाज में अंतर

समाजशास्त्र में समाज और एक समाज भिन्न – भिन्न अर्थों में प्रयोग होते हैं। समाज का अर्थ समूह के व्यक्तियों के बीच सामाजिक संबंधों की व्यवस्था से होता है। जबकि एक समाज  से तात्पर्य सामाजिक संबंधों से बंधे व्यक्तियों  के समूह से होता है। स्पष्ट है कि समाज अमूर्त होता है। और एक समाज मूर्त। लेकिन व्यक्तियों के प्रत्येक समूह को एक समाज नहीं कहा जाता। एक समाज व्यक्तियों का ऐसा संगठन होता है , जो कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए गठित होता है। जैसे जैन समाज , भारतीय समाज , हिंदू समाज आदि।

श्री मेन्जर के शब्दों में एक समाज व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें सभी व्यक्ति किसी सामान्य कार्य में सचेत रुप से भाग लेते हैं। 

 

समाज एवं शिक्षा में संबंध ( Relation between society and Education )

समाज और शिक्षा में एक अटूट संबंध है। किंतु पहले हम समाज और शिक्षा के आपसी संबंध पर विचार कर लेते हैं। भले ही हम शिक्षा व समाज के वर्तमान स्वरुप से परिचित हैं। समाज शास्त्रीय भाषा में समाज एक संप्रत्य है। सामाजिक संबंधों का जाल है। सामान्य तौर पर दो या दो से अधिक व्यक्तियों से मिलकर बने सामाजिक संबंधों को समाज कहते हैं। आज संसार के प्रायः सभी राष्ट्रों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है। और इस दृष्टि से राज्य विशेष की संपूर्ण जनता ही उस राज्य का समाज होती है। आज जब हम शिक्षा के संदर्भ में समाज की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य राज्य अथवा राष्ट्र विशेष की संपूर्ण जनता से ही होता है।

जब हम इस प्रकार के किसी समाज का अध्ययन करते हैं तो उसके अंतर्गत उसके घटक व्यक्ति , व्यक्ति – व्यक्ति ,समूह और समूह – समूह के सामाजिक संबंधों अथवा सामाजिक अंतर क्रियाओं का ही अध्ययन करते हैं तथ्य यह है कि जैसा समाज होता है वैसी ही उसकी शिक्षा होती है। और जैसी किसी समाज की शिक्षा होती है वैसा ही वह समाज बन जाता है ।

समाज का शिक्षा पर प्रभाव

प्रत्येक समाज अपनी मान्यताओं एवं आवष्यकताओं के अनुकूल ही अपनी शिक्षा की व्यवस्था करता है। और समाज की मान्यताएं एवं आवश्यकताएं उसकी भौगोलिक।, सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक , राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। समाज में होने वाले परिवर्तन भी उसके स्वरूप एवं आवष्यकताओं को बदलते हैं। और उनके अनुसार उस की शिक्षा का स्वरूप भी बदलता रहता है। यहां इन सब का वर्णन संक्षेप में है –

1. समाज की भौगोलिक स्थिति और शिक्षा

किसी भी समाज का जीवन उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होती है। तब उसकी शिक्षा भी उससे प्रभावित होना स्वभाविक है। जिन समाजों में भौगोलिक स्थिति ऐसी होती है कि उसमें मनुष्य को जीवन रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। उसमें अधिकतर व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए ना समय होता है , और ना धन , परिणामतः  पर उनमें जन शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती। और शिक्षा का क्षेत्र भी सीमित होता है। इसके विपरीत जिन समाजों की भौगोलिक स्थिति मानव के अनुकूल होती है और प्राकृतिक संसाधन भरपूर होते हैं। उनमें व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए समय एवं धन दोनों होते हैं। परिणामतः  उनमें शिक्षा की उचित व्यवस्था होती है।

यह तथ्य भी सर्वविदित है कि जिस देश में जैसे प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होते हैं। उनमें वैसे ही उद्योग धंधे पनपते हैं। और उन्हीं के अनुकूल वहां की शिक्षा व्यवस्था की जाती है। कृषि प्रधान देशों में कृषि शिक्षा। और उद्योग प्रधान देशों में औद्योगिक शिक्षा पर बल रहता है।

यह भी पढ़ें – आत्मकथ्य कविता का संक्षिप्त परिचय

2. समाज की संरचना और शिक्षा

भिन्न-भिन्न समाजों के स्वरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। कुछ समाजों में जातियां होती है , और जातिभेद भी। कुछ में जातियां होती है परंतु जातिभेद नहीं होता। और कुछ में जातियां ही नहीं होती। इस प्रकार कुछ समाजों में कुलीन और निम्नवर्ग होता है। और कुछ समाज में नहीं होता समाज विशेष के  इस स्वरूप का उसकी शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए जब इसमें कठोर वर्ण व्यवस्था थी। तब शुद्रो को उच्च शिक्षा से वंचित रखा जाता था। और आज जब वर्ण भेद में विश्वास नहीं किया जाता तो समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए शिक्षा की समान सुविधाएं उपलब्ध कराने का नारा बुलंद है।

 

3. समाज की संस्कृति और शिक्षा

भिन्न भिन्न अनुशासनों में संस्कृति को भिन्न भिन्न अर्थ में देखा समझा गया है। परंतु आधुनिक परिपेक्ष्य में किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उसके रहन – सहन एवं खान – पान की विधियों व्यवहार प्रतिमानों आचार-विचार , रीति-रिवाज कला -कौशल , संगीत – नृत्य भाषा साहित्य धर्म – दर्शन आदर्श विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से होता है , जिसमें उसकी आस्था होती है। और जो उसकी पहचान होते हैं किसी समाज की शिक्षा पर सर्वाधिक प्रभाव उसकी संस्कृति का ही होता है। किसी भी समाज की शिक्षा के उद्देश्य उसके धर्म दर्शन आदर्श विश्वास और उसकी आकांक्षाओं के आधार पर ही निश्चित किए जाते हैं। उसकी शिक्षा की पाठ्यचर्या में सर्वाधिक महत्व उसकी भाषा साहित्य और धर्म दर्शन को दिया जाता है। और शिक्षा संस्थाओं में यथा व्यवहार प्रतिमानों को अपनाया जाता है।

 

4. समाज की धार्मिक स्थिति और शिक्षा

यूं धर्म संस्कृति का अंग होता है। परंतु यहां इस को अलग से इसलिए लिया गया है कि आरंभ से ही शिक्षा पर धर्म का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। दूसरी बात यह है कि अब धर्म के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत है। कुछ उसे शिक्षा का आधार मानने के पक्ष में है , और कुछ शिक्षा को धर्म से दूर रखने के पक्ष में है। धर्म की दृष्टि से समाजों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वह जिन्हें धर्म विशेष को माना जाता है और दूसरे वह जिनमें अनेक धर्मों का प्रचलन होता है। इन समाजों की शिक्षा व्यवस्था भिन्न भिन्न होती है।

धर्म विशेष को मानने वाले समाजों के शिक्षा में उनके अपने धर्म की शिक्षा को स्थान दिया जाता है। जैसे मुस्लिम राष्ट्रों में दूसरे प्रकार के समाजों में किसी धर्म विशेष की शिक्षा देना संभव नहीं होता। उसमें उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता है जैसे अपने देश भारत में। कुछ समाजों में धर्म शिक्षा को स्थान ही नहीं दिया जाता जैसे रूस में।

5. समाज की राजनितिक स्थिति और शिक्षा

समाज की राजनैतिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए एक तंत्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा अंधे राष्ट्रभक्त तैयार किए जाते हैं।जबकि लोकतंत्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को स्वतंत्र चिंतन और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए तैयार किया जाता है। इसके साथ – साथ एक बात और है और वह यह है कि जो समाज राजनीतिक दृष्टि से सुरक्षित होता है। उसकी शिक्षा के उद्देश्य व्यापक होते हैं। और जिस समाज में राजनीतिक दृष्टि से असुरक्षा होती है वह केवल सैनिक शक्ति और उत्पादन बढ़ाने पर बल देता है।

 

6. समाज की आर्थिक स्तिथि और शिक्षा

समाज की आर्थिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। आर्थिक दृष्टि से संपन्न समाजों की सुरंग शिक्षा बहुउद्देशीय होती है। वह अपने प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करते हैं। जन शिक्षा का प्रसार करते हैं और इस सबके लिए अनेक साधन जुटाते हैं। जैसे अमेरिका प्रगतिशील शिक्षा जन शिक्षा और व्यवसायिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं। जैसे भारत आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समाज ना अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा की बात सोच पाते हैं। जन शिक्षा की ओर ना व्यवसायिक शिक्षा की ओर जैसे बांग्लादेश समाज का अर्थ तंत्र भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करता है। कृषि प्रधान अर्थ तंत्र में शिक्षा की संभावनाएं कम होती है। वाणिज्य प्रधान में अपेक्षाकृत उससे अधिक और उद्योग प्रधान में सबसे अधिक।

7. सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा

हम जानते हैं कि समाज परिवर्तनशील है। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज के साथ-साथ उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए प्राचीन काल में इसकी भौतिक आवश्यकताएं कम थी और आध्यात्मिक पक्ष प्रबल था। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में धर्म और नीतिशास्त्र की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था। परंतु आज उसकी बहुत ही आवश्यकता है बढ़ गई है और आध्यात्मिक पक्ष निर्बल पड़ गया है। इसलिए शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीकी को अधिक महत्व दिया जाने लगा है।

कल तक नारियां केवल गृहणी के रूप में रहती थी इसलिए उन्हें केवल लिखने पढ़ने एवं घरेलू कार्यों की शिक्षा दी जाती थी। आज भी पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में कार्य करती हैं। अतः उनके लिए पुरुषों की भांति सभी प्रकार की शिक्षा सुलभ है। जब कभी सामाजिक क्रांति होती है तो वह शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर देती है।

 

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2 thoughts on “समाज एवं शिक्षा | समाजशास्त्र | समाज की परिभाषा | समाज और एक समाज में अंतर | Hindi full notes”

    • शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास है ।
      सर्वांगीण अर्थात सभी क्षेत्रों में मानसिक शारीरिक आर्थिक सामाजिक आदि

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