जयशंकर प्रसाद छायावादी कवि थे। उन्होंने राष्ट्रीय जागरण में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। उनकी ख्याति मुख्य रूप से नाटककार तथा कवि के रूप में हुई है।
उनके ऐतिहासिक नाटकों ने जनसामान्य को नवजागरण के लिए प्रेरित किया, जिसमें उन्होंने अतीत के गौरव को जन सामान्य के समक्ष रखा। उनके पूर्वज किस प्रकार के गौरवशाली थे, हमारा इतिहास कितना गौरवशाली था। किंतु आज छोटे-मोटे राग द्वेष के कारण हम क्या हो गए हैं।
कोई हमारे ऊपर राज कर रहा है, इस प्रकार का संदेश देते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जागरण में अहम भूमिका निभाई।
इस लेख में आप उनके विचारों से भलीभांति परिचित होंगे।
जयशंकर प्रसाद राष्ट्रीय जागरण
जयशंकर प्रसाद राष्ट्रीय जागरण का संदेश देते हैं इस पंक्ति की व्याख्या कीजिए
राष्ट्रीय जागरण – जयशंकर प्रसाद छायावादी काव्य आंदोलन के प्रथम और महत्वपूर्ण कवि हैं।
काव्य धारा के रूप में छायावाद को एक निश्चित आकार देने में प्रसाद की विशिष्ट भूमिका रही है।
चुकी प्रसाद छायावाद के कवि हैं ,इसलिए स्वाभाविक है कि छायावाद की प्रवृत्तियां के परिचय से प्रसाद को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
प्रसाद के काव्य की विकास यात्रा
- ‘प्रेम पथिक’ 1910 से ‘कामायनी’ तक है
- ‘कानन कुसुम’, ‘चित्रधारा’,’झरना’ , ‘आंसू ‘ और ‘ लहर ‘ बीच की कृतियां है।
- ‘ झरना ‘ 1910 की निम्नलिखित काव्य पंक्तियों से छायावाद का आरंभ मिलता है –
” बात कुछ छिपी हुई है गहरी ।
मधुर है स्रोत है मधुर है लहरी।।”
सन 1916 से 1936 तक का समय छायावाद का रहा। हिंदी कविता में छायावाद और भारतीय राजनीति मंच पर ‘महात्मा गांधी’ का उदय लगभग साथ ही हुआ था।
‘डॉक्टर नगेंद्र’ के अनुसार जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कार्य को अहिंसा की ओर प्रेरित किया,
उन्होंने ही भाव सौंदर्यवृद्धि को छायावाद की ओर इसका अर्थ यह हुआ कि स्वाधीनता के संदर्भ में छायावाद और गांधी दोनों की ही परिकल्पनाएं उस दौर में लगभग एक समान ही थी।
स्वाधीन चेतना सूक्ष्म कल्पना लाक्षणिकता नए प्रकार का सादृश्य विधान नया सौंदर्यबोध इन विशेषताओं को एक साथ प्रसाद की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना और नवीन भाव बोध के आधार पर समझने की जरूरत होगी।
प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना
आरंभ में ही यह स्पष्टीकरण जरूरी है , कि प्रसाद उस अर्थ में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय चेतना के कवि नहीं है। जिस अर्थ में ‘माखनलाल चतुर्वेदी’ , ‘बालकृष्ण शर्मा नवीन’ और ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ है।
प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना अधिक स्पष्ट रूप में उनके नाटकों में व्यक्त हुई है।
प्रसाद की अपनी पहचान के आधार पर छायावाद का राष्ट्रीय काव्य नहीं कहा जा सकता है।
यहां यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय काव्य का महत्व कम है।
सच्चाई यह है कि छायावादी काव्य में ‘राष्ट्रीय जागरण’, ‘ सांस्कृतिक जागरण’ के रूप में आता है।
इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति प्रसाद की ‘प्रथम प्रभात’ ‘अब जागो जीवन के प्रभात’ ‘बीती विभावरी जाग री’आदि कविताओं में है । इसकी अभिव्यक्ति हम ‘पंत’, ‘निराला’ और ‘महादेवी वर्मा’ की ‘जाग तुझको दूर जाना’ जैसी कविताएं इस दृष्टि से विचारणीय है।
लहर में संकलित प्रसाद की कविता ” अब जागो जीवन के प्रभात ” पर विचार करें तो प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना स्वच्छंदतावाद की मूल चेतना से अभिन्न जान पड़ेगी-
” अब जागो जीवन के प्रभात
वसुधा पर ओस बने बिखरे ।
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे
उषा बटोरती अरुण गात।।”
कवि जयशंकर प्रसाद उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से देशवासियों को जगाने की बात कर रहे हैं। वह देशवासियों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने को प्रेरित कर रहे हैं।
वह कह रहे हैं कि जिस प्रकार सूर्य रात के अंधकार को समाप्त करता है, उसी प्रकार तुम भी जागो और पराधीनता रूपी रात को समाप्त करो।
अभी तक के विश्लेषण पर ध्यान दें तो लगेगा कि हम राष्ट्रीय चेतना को ‘ छायावाद ‘ में एक ‘ सांस्कृतिक चेतना ‘ के रूप में ही देख रहे थे।
इसलिए हमने छायावाद को ‘शक्ति काव्य ‘ कहने की सार्थकता स्पष्ट की।
छायावाद की भावभूमि को ‘ गांधीवाद ‘ से जितनी प्रेरणा और स्फूर्ति मिली उससे कम ‘ रविंद्रनाथ ‘ से नहीं मिली।
छायावाद के पीछे राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की प्रेरणा भी काम कर रही थी। यह आरंभ में वह देख ना सके थे।
‘ निराला ‘ की कृति ‘ तुलसीदास ‘ , ‘ राम की शक्ति पूजा ‘ , ‘ प्रसाद ‘ की ‘ कामायनी ‘ से परिचित होने के बाद उन्होंने अपनी धारणा बदल ली थी।
इस दृष्टि से प्रसाद की विश्व मंगल की कल्पना करते देखे जाते हैं ‘ कामायनी ‘ में मनु विराट के प्रति ऐसी जिज्ञासा प्रकट करते हैं-
” वह विराट था हमें घोलता
नया रंग भरने को आज
कौन ? हुआ यह प्रश्न अचानक
और कोतूहल का था राज ।।”
कामायनी में राष्ट्रीय चेतना देखने का सवाल है ,उसकी मूल संकल्पना किसी भी संकुचित राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।
विश्वमंगल यही इसका मूल्य प्रयोजन है। प्रसाद की स्वाधीन चेतना और विश्व दृष्टि का ही परिणाम है।
कमायनी 20 वी शताब्दी के दूसरे – तीसरे दशक का राजनीतिक सांस्कृतिक समय ‘कामायनी’ में कहां किस रूप में है विचारणीय संदर्भ यह है।
‘ मुक्तिबोध ‘ किसी प्रेरणा से कहते हैं कि ‘ प्रसाद ‘ का दर्शन एक ‘ उदार पूंजीवादी ‘ , ‘ व्यक्तिवादी दर्शन ‘ है जो वर्ग विषमता की निंदा भी करता है और वर्गातीत चेतना के आधार पर समाज के वास्तविक विन्दुओं पर पर्दा डालना चाहता है या उनका काल्पनिक समाधान सुनाना चाहता है।
प्रसाद का स्वदेश प्रेम स्वदेश के सौंदर्य के अछूते चित्रों के रूपों में व्यक्त हुआ है। संपूर्ण भारत उनके लिए सौंदर्य का भंडार है।
भारत के प्राकृतिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर कवि ने भाव विभोर हो देश के सौंदर्य का चित्रण किया है –
” अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।”
कवि के प्यारे देश में जब जब विदेशी शक्ति का आधिपत्य या आक्रमण हुआ , तब तब कवि की लेखनी दृढ़ होकर लोगों के जनमानस तक पूर्ण संग्राम में बलवीर बनकर शामिल होने के लिए पुकारती रही ।
ऐसी ही पुकार सिकंदर के आक्रमण के उपरांत प्रणय गीत में देखने को मिलती है-
“हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ।।”
प्रणय गीत में देशवासियों को शत्रु का डटकर सामना करने की प्रेरणा दी गई है।
भारत के अमर वीरों तथा साहसी युवाओं का आह्वान किया गया है कि वह देश में घुस आए विदेशी शत्रुओं का वीरतापूर्वक सामना करें।
कवि जयशंकर ने ‘ बीती विभावरी जाग री ‘ के माध्यम से भी लोगों को जागृत करने के लिए प्रेरित किया है –
” बीती विभावरी जाग री
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।।”
कवि इन पंक्तियों में भी जनमानस को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने को प्रेरित कर रहा है।कवि का कहना है कि अब गुलामी रूपी रात को छटने का समय आ गया है ।
अब आजादी रूपी उषा का फैलना है।
अतः सभी देशवासी एक साथ मिलकर विदेशियों का सामना कर उन्हें अपने देश से भगा दें , और सूर्य की तरह अपने मातृभूमि पर फैल जाए।
कवि जनमानस को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास कर रहे हैं।
कवि प्रकृति के माध्यम से तो कभी नायक – नायिका के माध्यम से कवि मानता है कि जब सभी लोग एकत्रित होकर इस लड़ाई को लड़ेंगे तभी आजादी हमें मिल पाएगी।
जब मानव चाहेगा तभी उसे तो उसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं है-
” मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी हो जाता है ”
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निष्कर्ष
छायावाद युग में लिखी कविताओं में नवजागरण के संकेत अधिक महत्वपूर्ण है। ‘ नवजागरण ‘ की इस भावना में एक नए मनुष्य की परिकल्पना दिखाई देती है।
प्रसाद यदि छायावाद के मूल स्वानुभूति की विशिष्टता पर बल देते हैं , तो इसके पीछे भी स्वाधीन मनुष्य की कल्पना है। निराला जब कहते हैं ” मैंने ” , ” मैं ” शैली अपनाई तो इसी ‘ स्वाधीन चेतना ‘को अभिव्यक्ति देते हैं।
अब ऐतिहासिक दृष्टि से हम यह अंतर समझने की भारतेंदु काल में राष्ट्रीयता की जो भावना स्पष्ट थी और मूर्ति थी।
उसने द्विवेदी युग तक आते-आते स्वच्छंदतावाद के परिप्रेक्ष में एक नए राष्ट्रीय जागरण का रुप ले लिया, और उसी के प्रभाव में छायावाद में एक नई मानव परिकल्पना सामने आई।
इस दृष्टि से राजनीतिक परिदृश्य में ‘ तिलक ‘ की भूमिका पर विचार करें जब वह ‘ कांग्रेस ‘ के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए प्राचीन दार्शनिक मान्यताओं का परीक्षण कर रहे थे और गीता का आधुनिक काव्य भाषा रच रहे थे। तो उसके पीछे यही भावना नवीन राष्ट्रीय चेतना या राष्ट्रीय भावना थी।
कर्म सिद्धांत की उनकी व्याख्या कामायनी में व्यक्त ज्ञान शिक्षा और क्रिया के पारस्परिक संबंध से तुलनीय है 1919 में तिलक का स्थान गांधी ने ले लिया तो स्वतंत्रता का एक नया संदेश जनता तक पहुंचा।
राष्ट्रीय भावना की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति नए रूपों में दिखाई देने लगी छायावाद युग के संदर्भ में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय चेतना के सांस्कृतिक पक्ष पर बल देना आवश्यक है हम अपना ध्यान इस अंतर की ओर जरुर आकृष्ट करना चाहेंगे कि यह राष्ट्रीय चेतना सीमित अर्थ में राष्ट्रवाद नहीं है।
प्रसाद की व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का विश्वमंगल से विरोध ना था।
यह भी सही है कि प्रसाद शोषण उत्पीड़न के विरोध में थे बंधुओं से प्रबुद्ध थे विषमता रहित समाज की स्थापना चाहते थे भले ही समाधान उनका काल्पनिक हो आदर्शवादी हो।
कहा जा सकता है कि मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना संघर्ष चेतना एकता जैसे तत्व थे। जिनका महत्व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए आवश्यक था।राष्ट्रीय जागरण
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