प्रगतिशील हिंदी काव्य का विकास अन्य काव्य से अधिक हुआ है, इसने पुरानी परिपाटी और क्लासिक सांस्कृतिक बंधनों मुक्ति पाने का सफल प्रयास किया। आज हम प्रगतिशील तथा प्रयोगवाद पर विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे, उसकी भाषा शैली विचार समस्त बिंदु पर गहनता से समझने का प्रयत्न करेंगे समझने का प्रयत्न करेंगे।
प्रगतिशील काव्य। प्रयोगवाद
प्रगतिवाद के विकास क्रम पर चर्चा करते हुए प्रगतिवादी साहित्य की प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
प्रगतिशील साहित्य का संबंध हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से बहुत गहरा है। आजादी का आंदोलन आधुनिक साहित्य की अब तक की सभी प्रमुख प्रवृतियों को प्रेरित और प्रभावित करता रहा है। प्रगतिवादी साहित्य को हम देशव्यापी आंदोलन भी कह सकते हैं।
यूरोप में फासीवाद के उभार के विरुद्ध संघर्ष के दौरान इस आंदोलन का जन्म हुआ था। भारत जैसे औपनिवेशिक देशों के लेखकों और कलाकारों ने इसे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से जोड़ दिया, इस आंदोलन के पीछे मार्क्सवादी विचारधारा की शक्ति और सोवियत संघ के निर्माण की ताकत भी लगी हुई थी।
अंग्रेजी में जिसे “प्रोग्रेसिव लिटरेचर” कहते हैं और उर्दू में “तरक्की” और हिंदी साहित्य में “प्रगतिशील साहित्य” नाम दिया गया है। हिंदी में प्रगतिशील के साथ – साथ प्रगतिवाद का भी प्रयोग हुआ है। गैर प्रगतिशील लेखकों ने उस साहित्य को जो मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अनुसार लिखा गया है प्रगतिवाद नाम दिया है।
1936 से 42 तक एक विशेष प्रकार की काव्यधारा प्रचलित रही , जिसे बाद में प्रगतिवाद का नाम दिया गया। “प्रगति” का शाब्दिक अर्थ है गति उच्च गति या उन्नति।
इस साहित्य के विषय में प्रायः सभी ने इस धारणा को स्वीकार किया है कि प्रगतिवादी साहित्य मार्क्सवादी चिंतन से प्रेरित समाज उन्मुख साहित्य है, जो पूंजीवादी शोषण और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह जगाकर वर्गहीन समाज की स्थापना में विकास रखता है।
पूंजीपतियों के विरुद्ध विद्रोह और क्रांति की प्रेरणा फूंकना ईश्वर, धर्म, करुणा, यथार्थ उन्मुक्ता, श्रम, निष्ठा और अभिव्यक्ति की सादगी और सार्थकता प्रगतिवादी साहित्य की विशेषता है।
प्रगतिवादी काव्य के प्रेरणा स्रोत
प्रगतिवाद का समय एकाएक आरंभ नहीं हुआ, बल्कि यहां छायावाद का पतन और प्रगतिशील का समारंभ एक साथ हुआ। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में औद्योगिक विकास के परिणाम स्वरुप भारत में पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की स्थापना हो चुकी थी।
यह दोनों वर्ग अपने – अपने लाभ के लिए संघर्ष करते थे। वर्ग संघर्ष की चेतना ने मजदूर वर्ग और समाजवाद की ओर चलने के लिए प्रेरित किया। 1914 ईस्वी में मजदूर संगठित होने लगे और सन 1920 ईस्वी तक “अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस” की स्थापना हो गई।
चौथे दशक में तो प्रतिवर्ष बड़ी हड़ताल का आयोजन भी होने लगा, मजदूरों के साथ – साथ किसानों की दरिद्रता, ऋण, ग्रस्तता, जमींदारों की शोषक वृति प्राकृतिक प्रकोप आदि ने भी भारतीय जन जीवन को नई दिशा प्रदान की।
कार्ल मार्क्स
ने अंग्रेजी शासन काल में भारतीय समाज व्यवस्था की और प्रकाश डालते हुए लिखा था कि यह अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा पुराने रीति – रिवाजों की गुलाम बन गई है, इसका संपूर्ण गौरव नष्ट हो चुका है, और इसकी ऐतिहासिक शक्ति समाप्त हो चुकी है।
अंग्रेजी शासन के दृष्टिकोण पर मार्क्स ने व्यंग किया है – “मैं जानता हूं की अंग्रेजी कारखाने द्वार केवल इसी उद्देश्य को सामने रखकर हिंदुस्तान में रेल में बनवा रहे हैं कि उनके द्वारा कम खर्च में अधिक कपास और दूसरा कच्चा माल अपने उद्योग धंधों के लिए निकाल सके।”
इस तरह की नीति से स्पष्ट प्रतीत होता है कि भारतीय समाज में शोषण के प्रति यहां की सामंती व्यवस्था ही नहीं अपितु विदेशी शासन भी जिम्मेदार था।
पूंजीवादी वर्ग और विदेशी सरकार दोनों ने इस देश की अनपढ़ रुचि ग्रस्त एवं दीन – हीन जनता को दोनों हाथों से लूटने का भरसक प्रयास किया। पूंजीवाद के प्रभाव से भूखे मजदूर संघर्ष के लिए तैयार हो चुके थे। वह एक तिरंगे के नीचे आजादी का नारा लगाने लगे थे, तो दूसरी और पूंजीवादी व्यवस्था का अंत करने के लिए कृतसंकल्प थे।
मार्क्सवादी सिद्धांतों के अनुसार समाजवादी मूल्यों की अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से स्वीकार कर ली गई तो इसे ‘ प्रगतिशील साहित्य ‘ को ‘ प्रगतिवादी साहित्य ‘ कहा जाने लगा।
डॉ बच्चन सिंह
का यह मानना था कि “इसमें संदेह नहीं कि यह मार्क्सवाद के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित नहीं बल्कि उस पर आधारित भी है।”
डॉ नामवर सिंह – की टिप्पणी गौरतलब है उन्होंने आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां नामक अपनी पुस्तक में प्रयोगवाद अध्याय में लिखा था कि जिस तरह छायावाद और छायावादी कविता भिन्न नहीं थी , उसी तरह प्रगतिवाद और प्रगतिशील साहित्य भिन्न नहीं थे। ” वाद ” की अपेक्षा ‘ शील ‘ को अधिक अच्छा समझ कर इन दोनों मैं भेद करना बुद्धि – विलास है , और कुछ लोगों की इस मान्यता के पीछे प्रगतिशील साहित्य का प्रश्न विरोध भाव छिपा है।
मुंशी प्रेमचंद ने सन 1936 ईस्वी में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य के उद्देश्य को इस प्रकार रेखांकित किया है –
“हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर केवल वही साहित्य खरा उतरेंगे जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव, सौंदर्य का सार हो, श्री जिनकी आत्मा हो, सौंदर्य का सार हो जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो जो इसमें गति संघर्ष और बेचैनी पैदा करे सुलझाएं नहीं क्योंकि अब ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”
पंत को भले ही प्रगतिवादी मान लिया जाए , लेकिन निराला को तो निश्चित रुप से प्रगतिशील कवि कहना होगा अधिकांश विद्वानों का मानना है कि हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता के दर्शन सर्वप्रथम सुमित्रानंदन पंत में होते हैं।
“युगांत” की कुछ कविताओं में इस कवि के कविता पर प्रगतिशीलता की स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है।
शिवदान सिंह चौहान
प्रगतिवाद साहित्य की धारा ही नहीं साहित्य का मार्क्सवाद दृष्टिकोण है।
प्रकाश चंद्र गुप्त
ने हिंदी साहित्य को ही प्रगतिशील मान कर उस का विवेचन करते हुए मानते हैं – “भारतेंदु ने प्रगतिशीलता की परंपरा में राष्ट्रीयता और यथार्थवाद जोड़े इसी भूमि पर आधुनिक प्रगतिवाद की इमारत खड़ी हुई है द्विवेदी युग के राष्ट्रीय कवियों ने इस परंपरा को विकसित किया और छायावाद ने इसको रुप रंग से पुष्ट किया।”
डॉ नगेंद्र
ने मार्क्सवाद का साहित्यकरण प्रगतिवाद माना है। कुछ विद्वानों ने प्रगतिवादी कविता धारा में कविता के प्राणतत्व का लोप माना है।
डॉ रामदरश मिश्र
की स्पष्ट धारणा है कि यह नाम (प्रगतिवाद) उस काव्यधारा का है जो मार्क्सवादी दर्शन के आलोक में सामाजिक चेतना और भाव – बोध को अपना लक्ष्य बना कर चली। ”
प्रगतिवादी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियां
प्रगतिवादी काव्यधारा की विशेषताओं , प्रवृतियों का प्रयास सभी ने थोड़ा सा शाब्दिक फेरबदल किया है , जो वाद या कविता धारा एक बार पहचान बना देती है। अर्थात एक बार प्रवृतियां निर्दिष्ट होने पर सभी उन्हीं का उल्लेख ही अपने काव्य इतिहास ग्रंथों में करते हैं।
अतः प्रगतिवाद की विशेषताओं में यदि मित्र कहानी समीक्षक मौलिकता का दंभ मानते हैं कम से कम उन्हें निराला पंत तथा मुक्तिबोध संबंधी वक्तव्य तो पढ़ लेना चाहिए।
प्रगतिवादी कविता की पूर्व प्रचलित विशेषताओं का विभाजन निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है –
वर्गीय समझ शोषक शोषित वर्ग विभाजन
प्रगतिवादी कवि मार्क्सीय चिंतन को प्रमुख मानते हैं , वर्गीय समझ में यह अग्रणी है। इसलिए इनके काव्य का मूल स्वर शोषक शोषित वर्ग विभाजन है। इनका विश्वास है कि सामाजिक विषमता का मूल कारण असमान अर्थव्यवस्था है। पूंजी के कुछ हाथों में सिमट जाने के कारण मानव – मानव में , छोटे – बड़े का भेद उत्पन्न हो जाता है।
पूंजी का संग्रह भी शोषित की प्रक्रिया पर आधारित है। मजदूरों और किसानों के श्रम से उत्पन्न पूंजी में उनका पूरा हिस्सा मिलना चाहिए साधनों पर स्वामित्व रखने वाले बल्कि दूषित व मार्गो से उत्पादन पर अधिकार कर लेते हैं।
इस प्रकार मजदूर वर्ग शोषित बन जाता है।
यह शोषण आर्थिक क्षेत्र में नहीं रहता अपितु धर्म और समाज को भी प्रभावित करता है। शोषक वर्ग संपन्न होने के कारण समाज के अंगों पर प्रभावी हो जाते हैं।
यदि यही कारण है कि शोषित जन आर्थिक सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से पिछड़ जाते हैं और शोषक वर्ग की दृष्टि में है बन जाते हैं।
” दो वर्गों में बँट – बँटकर यह विश्व भगा जाता है ,
छीना झपटी का इसमें रण रोग लगा जाता है। ”
इस वाद के कवि मानते हैं कि पूंजीवादी शोषण व्यवस्था की नींव मूलतः शोषण पर आधारित है। इसलिए उनकी कविताओं में पूंजीवादी के प्रति स्पष्ट विरोध है।
२ यथार्थ दृष्टि
प्रगतिवादी काव्यधारा की पहचान का आधार जहां विचारधारा के आधार पर मार्क्सवाद है, वहां भाव कल्पना का स्थान यथार्थ दृष्टी ने ले लिया है। पूर्व कविता को ऐसी एक प्रवृत्ति के आधार पर लगाया जा सकता है उन्हें सामाजिक यथार्थ एवं वैचारिक पक्षधरता का कवि स्वीकारना सर्वथा न्याय संभव है।
सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इस वाद विशेष के कवि छायावादी कल्पनाशीलता, स्वप्नशीलता, प्राकृतिक रमणीयता की अपेक्षा यथार्थ ठोस धरातल आत्मसात किए हैं।
यह कभी अपनी धरती परिवेश और समाज की समस्याओं के प्रति ईमानदार एवं जागरुक हैं।
डॉ बच्चन सिंह ने मुक्तिबोध को इसलिए प्रगतिवाद की सीमा में आबद्ध नहीं किया है। समस्त समाज के दुख – दर्द को वाणी देने की छटपटाहट इसी कारण है, मुझे कदम – कदम पर कविता की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य है –
” मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है ,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में महाकाव्य की पीड़ा है। ”
मुक्तिबोध तो प्रयोगवाद के कवि हैं , जिन्होंने सामाजिक यथार्थ को सर्वथा नवीन टेक्निक प्रस्तुत किया।
अधिकांश इतिहास ग्रंथों में मुक्तिबोध के काव्य की चर्चा बिना लेखन समय को ध्यान में रखे प्रगतिवादी काव्य में की जाती है ऐसा करना ऐतिहासिक दृष्टि इतिहास बोध से न्याय संगत नहीं।
प्रगतिवाद वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए कटिबद्ध है व जाती वर्ण अर्थ धर्म संप्रदाय आदि के नाम स्थापित घेरों को तोड़कर मानवता के आधार पर समाज को प्रतिष्ठित करना चाहता है।
अमीर – गरीब का भेदभाव मिटाकर सभी को बराबरी दिलवाना इन कवियों का लक्ष्य रहा है। वर्गहीन समाज इन का आधार रहा है।
‘ कोई ना धनी रह जाए कोई ना दरिद्र दिखाएं ,
जो काम करे सुख भोगे यह स्वर्ण नियम बन जाए। ”
३ मार्क्सीय सिद्धांतों के प्रति अत्यधिक झुकाव
प्रगतिवादी काव्य की दृष्टि से सीमित रहा है , कारण मार्क्सवादी सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इस काव्य धारा के अधिकांश कवियों का आरोप है कि उनकी निष्ठा और भक्ति रूप और मार्क्सवाद के प्रति है।
इस देश के प्रति नहीं पीड़ितों और शोषितों को भी समान अवसर दिए जाने के कारण या शोषित वर्ग की समाप्ति के कारण इन कवियों का आदर्श लोक अवश्य रहा है किंतु फिर भी सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनता के दुख – दर्द को जो वाणी दी है वह उनकी राष्ट्रीयता और देशभक्ति का ही प्रमाण है।
४ लोकजीवन
प्रगतिवादी काव्य की प्रवृत्ति के अंतर्गत भी कहानी समीक्षक अपने आधुनिक काल के इतिहास में मुक्तिबोध को कवि के रूप में उद्यत कर अपनी मौलिकता का परिचय देना चाहते हैं।
उसी प्रकार की भूल कुछ साहित्य इतिहास लेखकों ने की है इतिहास में मौलिकता का दंभ तभी पाला जाना चाहिए जब आपको इतिहास दृष्टि पता हो। समय – विवेक हो प्रगतिवादी कवियों की किस विद्वान के लोक जीवन चेतना का नहीं माना है।
छायावादी कवियों में पंत तथा निराला की कुछ कविताओं में लोकचेतना के अनेक रंग हैं। आर्थिक दृष्टि से विभिन्न लोगों के जीवन के अभाव की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। इन दोनों कवियों के साथ ही त्रिलोचन, रामविलास शर्मा, नागार्जुन आदि कवियों ने अपने ग्राम प्रांत को प्रगतिवाद काव्य में जीवनतता प्रदान की है।
प्रगतिवादी काव्य में शोषित जन के जीवन की पीड़ा भरी करुण कहानी अंकित की गई है, पूंजीवाद का प्रसार सब और से शोषित जन को घेरे हुए है। भगवती चरण वर्मा ने कृषकों की दयनीय स्थिति को चित्रित किया है –
” बीवी बच्चों से छिन्न-बिन दाना – दाना अपने में भर
भूखे तडपे या मरे भरो का तो भरना है उसको घर। ”
५ भाग्यवादी दृष्टि का विरोध
प्रगतिवादी कवि सामाजिक यथार्थ जनक्रांति और मानव मुक्ती को यथार्थ रूप में देखने के पक्षपाती हैं उन्होंने धर्म भाग्य और ईश्वर के प्रति अनास्था व्यक्त की है।
धर्म का घूंट पिला कर ही शोषितों को विद्रोह करने से रोकने का उपाय सदा से अपनाया जा रहा है। ईश्वर और धर्म का भय दिखाकर लघु मानव का मानसिक दिवाला पीटने की योजना चिरकाल से कार्यान्वित होती आई है। बड़े – बड़े धर्माधिकारी धर्म का उपदेश देकर स्वयं विलासी जीवन व्यतीत करते हैं।
प्रगतिवादी काव्य उन सभी से शोषित वर्ग को सावधान करता है, असल में भाग्यवाद का सिद्धांत शोषित वर्ग की चिंतन प्रक्रिया को ही कुंठित कर देता है। वह अपनी दरिद्रता और हीनता के मूल को कोसता हुआ सारी जिंदगी पार कर लेता है।
पाप और पुण्य स्वर्ग और नरक यश- अपयश धर्म और अधर्म सत्य – असत्य ब्रह्मा , माया आदि के बंधन खोलने का आह्वान इन कवियों ने किया है।
दिनकर कुरुक्षेत्र काव्य में शोषितों के विद्रोह भावना को शांत करने के लिए धर्माचार्यों द्वारा किए गए भाग्यवाद के प्रचार का विरोध करते हैं।
” भाग्यवाद आवरण पाप का और शास्त्र शोषण का
जिससे रखता दबा पाप का जन भाग दूसरे जन का। ”
६ शिल्प पक्ष
छायावादी काव्य शिल्प की अपेक्षा प्रगतिवादी काव्य शिल्प सतही तथा सरल है , इसमें कलात्मकता का अभाव है। यथार्थ दृष्टि के प्रति विशेष आग्रह और कल्पना से दुराव इसे काव्य से दूर ले जाते हैं। प्रायः ऐसा माना जाता है कि निम्न वर्ग तक पहुंचने के लिए प्रगतिवादी कवियों को छायावादी शैली का परित्याग करना पड़ा है।
सहजता , सरलता और सुबोधता तथा आडंबर हीनता इस काव्य की भाषा के लक्षण है डॉ नगेंद्र की धारणा है कि
” भारत में प्रगतिवाद का भविष्य साम्यवाद के साथ बंधा हुआ है लेकिन फिर भी आधुनिक काव्य की अधिकता को आदर और धैर्यपूर्वक उसका अध्ययन करना होगा उसमें हिंदी काव्य को एक जीवंत चेतना प्रदान की है, इसका निषेध नहीं किया जा सकता। ”
भाषा की दृष्टि से प्रगतिवादी काव्य के विषय में यही कहा जा रहा है कि कवियों ने सामान्यता खड़ी बोली को ही ग्रहण किया है, फिर भी कहीं-कहीं आंचलिक बोलियों के भी शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
प्रगतिवादी कवि चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग नहीं करता। वह केवल उन्हीं अलंकारों का प्रयोग करना चाहता है जो भावों को सरल एवं स्पष्टता से प्रेरित करने में सहायक हो कृपया प्रस्तुति में किसी प्रकार का चमत्कार मान्य नहीं है।
इन कवियों ने जन गीतों सरल और बोधगम्य लोक धुनों की शैली अपनाकर गीतों का सृजन किया है।
निष्कर्ष
समग्रता कहा जा सकता है कि , प्रगतिवाद जनवादी मंच है, जिसने समाज के तमाम बुराइयों को पहचान कर उसे बाहर करने का प्रयत्न किया। प्रगतिवादी कवि ने इस समाज की जड़ों को खोखला करने वाली वजहों की पहचान की और उसका निदान लोगों के सामने प्रस्तुत किया। अतः प्रगतिवादी कवियों को जनवादी कवि कह सकते हैं।
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